एनसीईआरटी समाधान कक्षा 7 संस्कृत पाठ 3 स्वावलम्बनम्
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 7 संस्कृत अध्याय 3 स्वावलम्बनम् – तृतीय: पाठ: स्वावलम्बनम् के प्रश्न उत्तर तथा अन्य छोटे बड़े प्रश्नों के उत्तर विद्यार्थी सीबीएसई सत्र 2024-25 के लिए यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक प्रश्न के उत्तर को विस्तार से पीडीएफ तथा विडियो के रूप में दिया गया है। साथ ही पाठ का हिंदी रूपांतरण – संस्कृत हिंदी अनुवाद भी दिया गया है ताकि पूरे पाठ को कहानी की तरह हिंदी में भी समझा जा सके।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 7 संस्कृत अध्याय 3 स्वावलम्बनम्
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 7 संस्कृत तृतीय: पाठ: स्वावलम्बनम्
कक्षा 7 संस्कृत अध्याय 3 स्वावलम्बनम् का हिंदी अनुवाद
संस्कृत वाक्य | हिंदी अनुवाद |
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कृष्णमूर्ति: श्रीकण्ठश्च मित्रे आस्ताम्। | कृष्णमूर्ति और श्रीकण्ठ दो मित्र थे। |
श्रीकण्ठस्य पिता समृद्ध: आसीत्। | श्रीकण्ठ के पिता धनवान् थे। |
अत: तस्य भवने सर्वविधानि सुख-साधनानि आसन्। | इसलिए उसके घर में सब प्रकार सुख-साधन थे। |
तस्मिन् विशाले भवने चत्वारिंशत् स्तम्भा: आसन्। | उस बड़े घर में चालीस खम्भे थे। |
संस्कृत वाक्य | हिंदी अनुवाद |
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तस्य अष्टादश-प्रकोष्ठेषु पञ्चाशत् गवाक्षा:, | वहाँ अठारह कमरों में पचास खिड़कियाँ |
चतुश्चत्वारिंशत् द्वाराणि, षट्त्रिंशत् विद्युत्-व्यजनानि च आसन्। | चवालीस वाजे और छत्तीस पंखे थे। |
तत्र दश सेवका: निरन्तरं कार्यं कुर्वन्ति स्म। | वहाँ दस नौकर हमेशा (लगातार) काम करते रहते थे |
परं कृष्णमूर्ते: माता पिता च निर्धनौ कृषकदम्पती। | परन्तु कृष्णमूर्ति के माता और पिता जी किसान पति-पत्नी थे। |
संस्कृत वाक्य | हिंदी अनुवाद |
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तस्य गृहम् आडम्बरविहीनं साधारणञ्च आसीत्। | उसका घर आडम्बर (दिखावा) रहित और साधारण था। |
एकदा श्रीकण्ठ: तेन सह प्रात: नववादने तस्य गृहम् अगच्छत्। | एक बार श्रीकण्ठ उसके साथ सवेरे नौ बजे उसके घर गया। |
तत्र कृष्णमूर्ति: तस्य माता पिता च स्वशक्त्या श्रीकण्ठस्य आतिथ्यम् अकुर्वन्। | वहाँ कृष्णमूर्ति और उसके माता पिता जी ने अपने सामर्थ्य से श्रीकण्ठ का अतिथि सत्कार किया। |
एतत् दृष्ट्वा श्रीकण्ठ: अकथयत्- ‘‘मित्र! अहं भवतां सत्कारेण सन्तुष्टोऽस्मि। | यह देखकर श्रीकण्ठ ने कहा-“मित्र! मैं तुम्हारे सत्कार से सन्तुष्ट हूँ। |
संस्कृत वाक्य | हिंदी अनुवाद |
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केवलम् इदमेव मम दु:खं यत् तव गृहे एकोऽपि भृत्य: नास्ति। | केवल यह बात मुझे दुःखी कर रही है कि तुम्हारे घर में एक भी सेवक नहीं है। |
मम सत्काराय भवतां बहु कष्टं जातम्। | मम सत्काराय भवतां बहु कष्टं जातम्। |
मम गृहे तु बहव: कर्मकरा: सन्ति।’’ | मेरे घर में तो बहुत से सेवक हैं।” |
तदा कृष्णमूर्ति: अवदत्-‘‘मित्र! ममापि अष्टौ कर्मकरा: सन्ति। | तब कृष्णमूर्ति बोला- “मित्र! मेरे भी आठ नौकर हैं। |
संस्कृत वाक्य | हिंदी अनुवाद |
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ते च द्वौ पादौ, द्वौ हस्तौ, द्वे नेत्रे, द्वे श्रोत्रे इति। | और वे दो पैर, दो हाथ, दो आँखें और दो कान हैं। |
एते प्रतिक्षणं मम सहायका:। | ये हर पल मेरे सहायक हैं। |
किन्तु तव भृत्या: सदैव सर्वत्र च उपस्थिता: भवितुं न शक्नुवन्ति। | परन्तु तुम्हारे नौकर सदा सब जगह उपस्थित नहीं हो सकते। |
त्वं तु स्वकार्याय भृत्याधीन:। | तुम तो अपने कार्य के लिए अपने सेवकों के अधीन हो। |
संस्कृत वाक्य | हिंदी अनुवाद |
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यदा यदा ते अनुपस्थिता:, तदा तदा त्वं कष्टम् अनुभवसि। | जब-जब वे अनुपस्थित होते हैं, तब तब तुम कष्ट का अनुभव करते हो। |
स्वावलम्बने तु सर्वदा सुखमेव, न कदापि कष्टं भवति।’’ | स्वावलम्बन से तो हमेशा सुख ही है, कभी कष्ट नहीं होता है।“ |
श्रीकण्ठ: अवदत्-‘‘मित्र! तव वचनानि श्रुत्वा मम मनसि महती प्रसन्नता जाता। | श्रीकण्ठ बोला—”मित्र! तुम्हारे वचनों को सुनकर मेरे मन में बहुत प्रसन्नता हुई। |
अधुना अहमपि स्वकार्याणि स्वयमेव कर्तुम् इच्छामि।’’ | अब मैं भी अपनाकाम स्वयं ही करूँगा ।” |
भवतु, सार्धद्वादशवादनमिदम्। साम्प्रतं गृहं चलामि। | काम ठीक है। अब साढ़े बारह बजे हैं। मैं अब घर चलता हूँ। |