एनसीईआरटी समाधान कक्षा 4 ईवीएस अध्याय 16
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 4 ईवीएस अध्याय 16 चूँ-चूँ करती आई चिड़िया (कक्षा 4 पर्यावरण पाठ 16) पर्यावरण अध्ययन (आस पास) हिंदी मीडियम और अंग्रेजी में सभी प्रश्नों के उत्तर सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। प्रश्नों के उत्तर तथा पाठ की व्याख्या हिंदी में विडियो के माध्यम से दी गई है जो पाठ को समझने में विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 4 ईवीएस अध्याय 16
बाल मंदिर के बच्चों के लिए पत्र
प्रस्तुत पाठ में गिजुभाई बधेका ने बच्चों के लिए एक मज़ेदार पत्र लिखा है। उनके द्वारा बच्चों को लिखे इस पत्र में आस-पास के पक्षियों के बारे में बताया गया है। यह पत्र उन्होंने बाल मंदिर के बच्चों को 13 अप्रैल 1936 को लिखा था।
घोंसले में पड़ा अंडा
दोपहर के तीन बजे थे। आकाश में एक भी बादल नहीं था। सूरज तेज चमक रहा था। यह वह समय था जब गौरैया, फ़ाख्ता, शक्कर-खोरा सब अपनी-अपनी जोड़ी बनाकर अपना घोंसला बनाने की तैयारी में लगे रहते हैं। कुछ पक्षियों के घोसलों में अंडे से बच्चे भी निकल आए थे। उन नन्हें बच्चों के माँ-बाप उन्हें तरह-तरह के कीड़े और अन्य चीज़े खिलाने में व्यस्त थे। गिजुभाई के आँगन में भी फ़ाख्ता का एक बच्चा और एक अंडा घोंसले में पड़ा था। उसकी माँ ने अंडे को ठीक से सेया नहीं था।
इंडियन रोबिन का घोंसला
गिजुभाई ने बताया की उन्होंने अपने गोपाल भाई के घर वाली सड़क के किनारे बहुत सारे पत्थर देखे थे। इन पत्थरों के बीच खाली जगह में कलचिड़ी (इंडियन रोबिन) ने अंडे दिए थे। गिजुभाई ने दूरबीन से घोंसले में देखा कि घोंसला घास से बना है। उसके ऊपर पौधो की नाजुक टहनी, जड़े, ऊन, रुई सब बिछा था। कलचिड़ी का घोंसला ऐसा ही होता है। कलचिड़ी के बच्चों को आरामदायक घर और बिस्तर चाहिए होता है। कलचिड़ी कौए जैसी नहीं है।
कौए के घोंसले में तो लोहे के तार और लकड़ी की शाखाएँ जैसी चींजें भी होती हैं। गिजुभाई ने कलचिड़ी के घोंसले में एक बच्चा भी देखा था। वह अपनी चोंच फाड़कर बैठा था। उसकी चोंच अंदर से लाल थी। कुछ देर बाद कलचिड़ी कहीं से उड़कर आई और बच्चे के मुँह में कुछ रखा। शायदकुछ छोटे-कीड़े होंगे। तब तक शाम हो गई थी। कलचिड़ी भी अब अपने बच्चे के साथ घोंसले में बैठ गई थी।
अलग-अलग घोंसले
कोयल बहुत मीठा गाती है। वह कभी-भी अपना घोंसला नहीं बनाती है। वह कौए के घोसलें में अंडे देती है। कौआ अपने अंडों के साथ कोयल के अंडों को भी सेता है। सभी पक्षियों के घोंसलों में भी काफ़ी अंतर होता है। कौआ हमेशा पेड़ की ऊँची डाल पर घोंसला बनाता है। जबकि फ़ाख्ता अपना घोंसला कैक्टस के काँटों के बीच या मेंहदी की मेढ़ से बनाता है।
गौरैया तो आमतौर पर घर के ऊँचे कोनो पर ही बना लेती है। कबूतर अपना घोंसला पुराने मकान और खंडहरों में बनाते है। बसंतगौरी पेड़ के तने में गहरा छेद बनाकर उसमें अपने अंडे देते हैं। दर्जिन चिडियां अपनी नुकीली चोंच से पत्तों को सी लेती है। उसके बीच में बनी थैली को अंडे देने के लिए तैयार करती है। शक्कर खोरा किसी छोटे पेड़ या झाड़ी की डाली पर अपना लटकता घोंसला बनाते हैं।
शाम को उसी दिन गिजुभाई ने एक डाल पर शक्कर-खोरा का घोंसला देखा। वह घोंसला बाल, बारीक़ घास, पतली टहनियाँ, सूखे पत्ते, रुई, पेड़ की छाल के टुकड़े, कपड़ों के चीथड़े और मकड़ी के जाले से बना हुआ था। दूरबीन से देखने पर गिजुभाई ने उस घोंसले में एक बच्चे को बैठा देखा था। घोंसले की एक तरफ़ छोटा-सा छेद था, बच्चा वहीं बैठा था। शायद वह अपनी माँ और खाने का इंतजार में था।
वीवर पक्षी की बात की जाए तो उनकी एक ख़ास बात सामने आती है। सभी नर वीवर पक्षी अपने-अपने घोंसले बनाते हैं। मादा वीवर उन सभी घोंसलों को देखती है। उसमें जो उसे सबसे अच्छा लगता है। उसमें ही वह अंडे देती है।
गिजुभाई लिखते है कि आजकल सब पक्षी बहुत व्यस्त हैं। घोंसला बनाना, अंडे देना- यह तो पहला क़दम है। बड़ी मेहनत तो बच्चों को ठीक से पालकर बड़े करने की होती है। पक्षियों के भी कई अन्य दुश्मन होते है जैसे-पक्षी, मनुष्य और जानवर आदि। इन सबसे बचकर रहना, खाना खोजना, घोंसला बनाना, अंडे सेकना और बच्चों को पालकर बड़ा करना यह हर पक्षी की परीक्षा होती है। फिर भी ये खुलकर गाते हैं और पंख फैलाकर उड़ते रहते हैं।