एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 8 किसान, जमींदार और राज्य
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 8 किसान, जमींदार और राज्य पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 2 के उत्तर सीबीएसई और राजकीय बोर्ड सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। कक्षा 12 इतिहास पाठ 8 के सवाल जवाब विद्यार्थी यहाँ से सरल भाषा में प्राप्त कर सकते हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 8
कक्षा 12 इतिहास अध्याय 8 किसान, जमींदार और राज्य के प्रश्नों के उत्तर
कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को सोत्र के रूप में इस्तेमाल करने में कौन सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
ऐतिहासिक सोत्रों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ आइन-ए-अकबरी था। कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को सोत्र के रूप में इस्तेमाल करने पर समस्याएँ यह भी थी कि आँकड़ों के जोड़ में कई गलतियाँ पाई गई। सभी सूबों से आँकड़ों को समान रूप से एकत्रित नहीं किया गया।
कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को सोत्र के रूप में प्रयोग करने में समस्याएँ तथा इतिहासकारों के द्वारा इसका समाधानः अनपढ़ किसान लेखन कार्य में असमर्थ था। ऐसे में कृषि इतिहास जानने के लिए सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी के मुगल दरबार के लेखकों तथा कवियों की रचनाओं का सहारा लेना पड़ता है। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में गुजरात, राजस्थान तथा महाराष्ट्र से प्राप्त दस्तावेज सम्मिलित हैं जो सरकार को आय की विस्तृत जानकारी देते हैं।
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था। किसान हर साल भिन्न-भिन्न मौसम में ऐसे काम करते थे जिससे फ़सल की पैदावार होती थी – जैसे जमीन की जुताई, बीज बोना तथा फ़सल पकने पर उसकी कटाई। इसके अलावा वे उन वस्तुओं के उत्पादन में भी ध्यान देते थे जो कृषि आधारित थीं जैसे शक्कर, तेल आदि। कई ऐसे क्षेत्र भी थे जैसे- सूखी जमीन के विशाल हिस्सों से पहाड़ियों वाले इलाके – जहाँ उस तरह की खेती नहीं हो सकती थी जैसी कि ज्यादा उपजाऊ जमीनों पर। मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी – एक खरीफ़ तथा दूसरी रबी। जिन जगहों पर बारिश या सिंचाई के अन्य साधन मौजूद थे वहाँ तो साल में 3 फ़सलें भी उगाई जाती थीं। इस वजह से पैदावार में अत्यधिक विविधता पाई जाती थी। आइन के अनुसार दोनों मौसम मिलाकर, मुगल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फ़सलें उगाई जाती थीं जबकि दिल्ली प्रांत में 43 फ़सलों की पैदावार होती थी।
बंगाल में केवल चावल की 50 किस्में पैदा होती थी। यह बात सत्य है कि आहार की खेती पर अधिक बल दिया जाता था परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि मध्यकालीन भारत में खेती केवल गुज़ारा करने के लिए की जाती थी। सोत्रों से हमें अक्सर जिन्स-ए-कामिल जैसी सर्वोत्तम फ़सलें मिलती हैं। मुगल राज्य में भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। तिलहन, दलहन तथा चीनी नकदी फ़सलों के तहत आती थी। इस बात से यह अनुमान लगाया जाता है कि एक औसत किसान की जमीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक-दूसरे से संबंधित थे।
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
कृषि उत्पादन में महिलाओं का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है:
- समाज में महिलाएँ पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करती थीं।
- महिलाएँ बुआई, कटाई तथा निराई के साथ-साथ पकी हुई फ़सल का दाना निकालने का काम करती थीं।
- सूत कातने बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करने का कार्य महिलाएँ करती थीं।
- गूँधाने तथा कपड़ों की कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलओं के श्रम पर आधारित थे।
- दस्तकार तथा किसान महिलाएँ न केवल खेतों में काम करती थीं बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाजारों में भी।
- पश्चिम भारत में रजस्वला महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की इज़ाजत नहीं थी। इसी प्रकार बंगाल में महिलाएँ मासिक धार्म के समय पान के बगान में नहीं घुस सकती थी।
- श्रम प्रधान समाज में महिलाओं को श्रम का एक महत्वपूर्ण संसाधन समझा जाता था क्योंकि उनमें बच्चे पैदा करने की क्षमता थी। लेकिन बार-बार बच्चों को जन्म देने तथा प्रसव के समय मृत्यु हो जाने के कारण महिलाओं की मृत्युदर बहुत ज्यादा थी।
- जमींदारों के परिवारों में महिलाओं के पुश्तैनी सम्पत्ति के अधिकारों को मान्यता दी जाती थी।
विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर दीजिए।
मुगल शासकों की वित्तीय तथा आर्थिक नीतियों के कारण साम्राज्य में मुद्रा का संचरण बढ़ने लगा। शाही टकसाल में खुली सिक्का-ढलाई की पद्धति ने मुद्रा संचरण को और ज्यादा विस्तृत बनाया। साथ ही मौद्रिक कारोबार के महत्व में भी बढ़ोत्तरी होने लगी। सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दियों में कृषि अर्थव्यवस्था में मौद्रीकीकरण का विस्तार हुआ तथा वस्तु विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था का स्थान मुद्रा अर्थव्यवस्था ने ले लिया। सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में ही राज्य द्वारा किसानों को यह छूट दे दी कि वे भू-राजस्व का भुगतान नकद अथवा जिन्स के रूप में कर सकते थे। इस सुविधा के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में मौद्रिक कारोबार के महत्व में वृद्धि होने लगी। इस काल में ग्रामों में दस्तकार विशाल संख्या में रहते थे और उन्हें उनकी सेवाओं के बदले जिन्स के रूप में भुगतान किया जाता था। इस काल में हमें सेवाओं के बदले नकद भुगतान के उदाहरण भी मिलते हैं।
उदाहरण – 18वीं शताब्दी के सोत्रों में बंगाल में जजमानी नामक एक व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। इसके अंतर्गत बंगाल में जमींदार लोहारों, सुनारों तथा बढ़इयों तक को उनकी सेवाओं के बदले रोज़ का भत्ता तथा रखने के लिए नकदी देते थे। विचाराधीन काल में ग्रामों और शहरों के मध्य होने वाले व्यापार के परिणामस्वरूप ग्रामों के कारोबार में भी मौद्रिकीकरण की भूमिका बढ़ने लगी। निर्यात के लिए उत्पादन करने वाले दस्तकारों को भी उनकी मजदूरी का भुगतान अथवा अग्रिम भुगतान नकद रूप में ही किया जाता था। 17वीं शताब्दी के सभी भारतीय ग्रामों में सराफ़ों का उल्लेख मिलता है। इतिहास में यह भी उल्लेख मिलता है कि भारत से निर्याति की जाने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए अधिक मात्रा में चाँदी भारत आने लगी। भारत में चाँदी के प्राकृतिक संसाधान नहीं थे। इस प्रकार बाहर से अधिक मात्रा में चाँदी आना भारत के लिए वरदान साबित हुई।
उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्वपूर्ण था।
मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्वपूर्ण था। जमीन से मिलने वाला राजस्व मुगल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद थी। जिस कारण से कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए और तेजी से फ़ैलते साम्राज्य के लगभग कुछ क्षेत्रों में राजस्व आकलन व वसूली के लिए यह जरूरी था कि राज्य एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा करें। दीवान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती थी।
लगान व्यवस्था तथा वसूली – लगान के लिए रैय्यतवाड़ी व्यवस्था अपनाई गई। कर निर्धारित करने से पहले मुगल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में विशेष प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित कीं। भू-राजस्व व्यवस्था के दो चरण थे – कर निर्धारण तथा वसूली। जमा निर्धारित राशि थी तथा प्राप्त वास्तविक वसूली गई राशि। आइन में एक स्थान पर अमील गुजार को सम्राट ने आदेश दिया था कि वे भू-राजस्व नकदी और फ़सल दोनों रूपों में वसूल करें।
आइन के अनुसार अकबर ने अपनी गहरी दूरदर्शिता के साथ जमीनों का वर्गीकरण किया और प्रत्येक के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धाारित किए गए। अकबर के अर्थमंत्री टोडरमल की सहायता से 1580 ई. में यह प्रणाली शुरू की गई। अकबर प्रथम मुगल बादजाह था जिसने लगान व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू किया। मुगल सम्राटों ने भू राजस्व की व्यवस्था भी इस तथ्य का एक सबूत है। उन्होंने भू-राजस्व के आंकलन और वसूली के लिए एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा किया।
आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
कृषि समाज में सामाजिक तथा आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति बहुत हद तक प्रभावी थी। जाति जैसे भेदभावों के कारण खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो निकृष्ट समझे जाने वाले कामों में लगे थे या फि़र खेतों में मजदूरी करते थे। इस तरह वे गरीबी में जीवन बिताने के लिए मजबूर थे। गाँव की आबादी का एक बड़ा भाग जाति व्यवस्था के बंधन में बंधे हुए थे। मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे निकृष्ट कामों से जुड़े समहू गाँव की सीमा से बाहर ही रह सकते थे। इसी तरह बिहार के नाविकों के पुत्र (मल्लाहजादाओं) का जीवन भी दासों जैसा था। सत्रहवीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में की गई है। इस पुस्तक के अनुसार जाट भी किसान थे। लेकिन जाति व्यवस्था में उनका स्थान राजपूतों के समान नहीं था। वृंदावन के गौरव समुदाय ने भी राजपूत होने का दावा किया, भले ही वे जमीन की जुताई के काम में लगे थे। समाज के निचले वर्गों में जाति, गरीबी तथा सामाजिक स्थिति के बीच सीधा संबंध था। पशुपालन तथा बागबानी में बढ़ते मुनाफ़े के कारण अहीर, गुज्जर तथा माली जैसी जातियाँ सामाजिक व्यवस्था में उभरकर सामने आयी।
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगल वासियों की जिंदगी किस तरह बदल गई?
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिंदगी बहुत हद तक बदल गई। जंगल के उत्पाद जैसे- शहद, लाख तथ मधुमोम की बहुत माँग थी। लाख जैसी कुछ वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं। व्यापार के तहत वस्तुओं का आदान-प्रदान भी होता था। कुछ कबीले भारत और अफ़गानिस्तान के बीच होने वाले जमीनी व्यापार में लगे थे जैसे- पंजाब का लोहानी कबीला। इस कबीले के लोग गाँवों और शहर के बीच होने वाले व्यापार में भी लगे थे। सामाजिक कारणों का असर तथा वाणिज्यिक खेती का असर जंगलवासियों की जिंदगी पर भी पड़ता था। कबीलाई व्यवस्था से राजतांत्रिक प्रणाली की तरफ़ संक्रमण बहुत पहले ही प्रारंभ हो चुका था, परंतु ऐसा लगता है कि 16वीं सदी में आकर ही यह प्रक्रिया पूरी तरह विकसित हुई। इन सभी की जानकारी हमें उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में कबीलाई राज्यों के बारे में आइन की बातों से मिलती हे। जंगल में कई कबीले रहते थे। इनका एक सरदार होता था।
कुछ राजा बन गए तथा उन्होंने सेना तैयार की। सिंधा इलाके के कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार तथा 7000 पैदल सिपाही होते थे। 16वीं शताब्दी के कबीलों में राजतंत्रीय प्रणाली विकसित हुई। उदाहरणार्थ – अहोम राजा।
मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।
मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका – जमींदार अपनी ज़मीन के मालिक होते थे। जमींदारों की समद्धि का कारण उनकी वृहद् व्यक्तिगत जमीन थी। इन्हें मिल्कियत कहते थे। इन जमींदारों को ग्रामीण समाज में एक प्रतिष्ठित तथा ऊँची हैसियत प्राप्त थी। ऊँची हैसियत के कारण कुछ खास सामाजिक तथा आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। जमींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति भी था तथा दूसरा कारण यह था कि वे लोग राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ देते थे। मिल्कियत ज़मीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी। इन ज़मीनों पर मजदूर काम करते थे। ज़मींदार अपनी मर्जी के अनुसार इन जमीनों को बेच सकता था। अधिकतर ज़मींदारों के पास उनके अपने किले होते थे तथा सैनिक टुकड़ियाँ भी थी। इन सैनिक टुकड़ियों में घुड़सवारों, तोपखाने, पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे। मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे। अबुल फ़जल इस ओर इशारा करता है कि ‘ऊँची जाति’ के ब्राह्मण-राजपूत गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले से ही अपना ठोस नियंत्रण बना रखा था।
जमींदारी को पुख्ता करने की धीमी प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण थी। कई कारणों ने मिलकर परिवार या वंज पर आधारित जमींदारियों को पुख्ता होने का मौका दिया। राजपूतों तथा जाटों ने ऐसी रणनीति अपनाकर उत्तर भारत में जमीन की बड़ी-बड़ी पट्टियों पर अपना नियंत्रण पुख्ता किया। जमींदारों ने खेती लायक जमींनों को बसाने में तथा खेतिहरों को खेती के सामान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी सहायता की। जमींदारों की खरीदी से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई।
जमींदार अपनी मिल्कियत की जमीनों की फ़सल भी बेचते थे। ऐसे प्रमाण हैं जो दिखाते हैं कि जमींदार अक्सर हाट (बाजार) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फ़सलें बेचते थे। जमींदारों का एक पहलू यह था कि जमींदार शोषण करने वाला तबका था। दूसरा पहलू यह था कि किसानों से उनके रिश्तों में पारस्परिकता, संरक्षण का गुट तथा पैतृकवाद था। दोनों पहलू इस बात की पुष्टि करते हैं। आमतौर पर राज्य का राजस्व अधिकारी ही उनके गुस्से का निशाना बना। दूसरे 17वीं सदी में भारी संख्या में कृषि विद्रोह हुए तथा उनमें राज्य के खि़लाफ़ जमींदारों को कई बार किसानों का समर्थन मिला।