एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 4 विचारक, विश्वास और इमारतें

एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 4 विचारक, विश्वास और इमारतें पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 1 के प्रश्न उत्तर 2023-24 के सिलेबस के अनुसार संशोधित रूप में यहाँ दिए गए हैं। कक्षा 12 इतिहास पाठ 4 के उत्तर छात्र यहाँ दिए गए पीडीएफ तथा विडियो के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं।

एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 4

जैन धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।

जैन धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षाएँ:

    1. जैन धर्म की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि पूरा संसार प्राणवान (सजीव) है।
    2. यह माना जाता है कि पत्थर, चट्टा का पौधा जल में भी जीवित रहता है।
    3. जीवों के प्रति अहिंसा – विशेषकर इंसानों, जानवरों, पेड़-पौधों तथा कीड़े-मकोड़ों को न मारना जैन दर्जन का केंद्र बिंदु है।
    4. जैन मान्यता के अनुसार जन्म और पुनर्जन्म का चक्र के द्वारा निर्धाारित होता है। कर्म के चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या की आवश्यकता होती है।
    5. जैन साधु तथा साधवी 5 व्रत करते थे: हत्या न करना, चोरी नहीं करना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य (अमृषा) और धन संग्रह न करना।
    6. जैन अहिंसा ने सिद्धांत ने संपूर्ण भारतीय चिंतन परंपरा को प्रभावित किया है।

साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।

साँची स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका निम्न प्रकार से है:

    • उन्नीसवीं सदी के यूरोपियों में साँची के स्तूप को लेकर काफ़ी दिलचस्पी थी। फ्रांसीसियों ने सबसे अच्छी हालत में बचे साँची के पूर्वी तोरणद्वार को फ्रांस के संग्रहालय में प्रदर्शित करने के लिए शाहजहाँ बेगम से फ्रांस ले जाने की इजाज़त माँगी। कुछ समय के लिए अंग्रेजों ने भी ऐसी ही कोशिश की। सौभाग्यवश फ्रांसिसी तथा अंग्रेज दोनों ही बड़ी सावधानी से बनाई प्लास्टर प्रतिकृतियों से संतुष्ट हो गए। इस प्रकार मूल कृति भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही रही।
    • भोपाल के शासकों, शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तानजहाँ बेगम, ने इस प्राचीन स्थाल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान दिया।
    • आश्चर्य नहीं कि जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्वपूर्ण ग्रंथों को सुल्तनजहाँ को समर्पित किया।
    • सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ एक संग्रहालय और अतिथि जाला बनाने के लिए अनुदान दिया। वहाँ रहते हुए ही जॉन मार्शल ने उपर्युक्त पुस्तकें लिखीं।
    • इस पुस्तक के विभिन्न खंडों के प्रकाशन में भी सुल्तान जहाँ बेगम ने अनुदान दिया।
    • भोपाल की बेगमों द्वारा लिए गए विवेकपूर्ण निर्णयों ने साँची के स्तूप का संरक्षण किया।

आपके अनुसार स्त्री-पुरूष संघ में क्यों जाते थे?

स्त्री-पुरूष संघ में इसलिए जाते थे क्योंकि वहाँ वे धर्म का नियमित ढंग से अध्ययन, मनन, उपासना तथा विचार-विमर्श आदि कर सकते थे। वे सांसारिक विषयों से दूर रहना चाहते थे। वहाँ वे बौद्ध दर्शन का गहनता से अध्ययन कर सकते थे। कुछ लोग धर्म के उपदेशक बनना चाहते थे। वहाँ का जीवन अनुशासित था।

साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है?

साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से बहुत सहायता मिलती है। बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से साँची की मूर्तियों में उल्लेखित सामाजिक एवं मानव जीवन की अनेक बातों को समझने में बहुत सहायता मिलती है। साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती है। साँची में कुछ एक प्रारंभिक मूर्तिकारों ने बौद्ध वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करने वाली घटना को प्रतीकों के रूप में दर्शाने का प्रयत्न किया है। साँची की एक और मूर्ति में एक वृक्ष के चारों ओर बौद्ध भक्तों को दिखाया गया है। वेसांतर जातक की कथा के अंतर्गत साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक हिस्से में एक मूर्तिकला अंश को देखने से लगता है कि उसमें ग्रामीण दृश्य चित्रित किया गया है।

परंतु यह दृश्य वेसांतर जातक की कथा से है, जिसमें एक राजकुमार अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंपकर अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ वनों में रहने के लिए जा रहा है। अतः यह कहा जा सकता हैं कि जिस व्यक्ति को जातक कथाओं का ज्ञान नहीं होगा वह मूर्तिकला के इस भाग को नहीं जान सकता। कुछ इतिहासकारों ने बौद्धचरित लेखन को भली-भाँति समझकर बौद्ध मूर्तिकला की व्याख्या करने का अच्छा प्रयास किया। साँची में पशुओं के सुंदर व सजीव चित्रों को उकेरा गया है। मुख्य रूप से हाथी, घोड़े तथा गाय, बैल के बनाए गए हैं। जातक ग्रथों के अध्ययन से स्पष्ट वर्णित पशु कथाओं से संबंधित हैं।

वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।

वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास- वैष्णव परंपरा में विष्णु भगवान को तथा शैव परंपरा में शिव भगवान को महत्वपूर्ण देवता माना जाता है। वैष्णववाद तथा सैववाद दोनों ही हिंदू धर्म से संबंधित थे। 600 ई. पू. से 600 ई. तक के काल में वैष्णववाद और शैववाद का विस्तार हुआ।
मूर्तिकला का विकास – देवी-दवताओं को विशेषताओं एवं उनके प्रतीकों का चित्रांकन उनके वस्त्र, आभूषणों एवं बैठने की मुद्रा के आधार पर किया जाता था। अलग-अलग भागों में विष्णु के अलग-अलग रूप लोकप्रिय थे। जिससे मूर्तिकला के विकास को विशेष प्रोत्साहन मिला। विष्णु के अनेक अवतारों की मूर्तियाँ बनाई गई। अन्य देवी-दवेताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गई।
वास्तुकला का विकास – मंदिर की दीवारों पर सुंदर भित्तिचित्रों को उत्कीर्ण किया जाता था। प्रारंभिक मंदिरों में एक चौकोर कमरा होता था। इसमें एक दरवाजा भी होता था। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँची संरचना बनाई जाने लगी जिसे शिखर कहा जाता था। मंदिरों में जल-आपूर्ति की व्यवस्था भी की गई। मंदिरों में विशाल सभास्थलों, ऊँची दीवारों और तोरणद्वारों का भी निर्माण किया जाने लगा।

स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए।

स्तूप बनाए जाने के कारण – ऐसी कई अन्य जगहें थीं जिन्हें पवित्र माना जाता था। इन जगहों पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष जैसे उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान गाड़ दिए गए थे। इन टीलों को स्तूप कहते थे। स्तूप बनाने की परंपरा बुद्ध से पूर्व की रही होगी, परंतु वह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। उनमें कई अवशेष ऐसे रहते थे जिन्हें पवित्र समझा जाता था, इसलिए समूचे स्तूप को ही बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में सम्मान मिला। इसी कारण वे पूजनीय स्थल के रूप में बन गए। बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद ने बार-बार आग्रह करके बुद्ध से उनके अवशेषों को संजोकर रखने की अनुमति माँग ली थी। बाद में सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से करके उन पर मुख्य शहर में स्तूप बनाने का आदेश दिया।
स्तूप निम्न लिखित तरीकों से बनाए जाते थे:

    1. स्तूप की वेदिकाओं और स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इन्हें बनाने और सजाने के लिए दिए गए दान का पता चलता है। उदाहरण- साँची के एक तोरणद्वार का हिस्सा हाथी दाँत का काम करने वाले शिल्पकारों के दान से बनाया गया था।
    2. स्तूप का जन्म एक गोलार्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ। इसे बाद में अंड कहा गया। धीरे-धीरे इसकी संरचना अधिक जटिल हो गई जिसमें कई चौकोर और गोल आकारों का संतुलन बनाया गया।
    3. अंड के ऊपर हर्मिका होती थी। यह छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था।
    4. हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे याष्टि कहते थे जिस पर अक्सर एक छत्री लगी होती थी।
    5. पवित्र स्थान को सांसारिक स्थान से अलग करने के लिए इसके चारों ओर एक वेदिका बना दी जाती थी।
    6. पत्थर की वेदिकाएँ लकड़ी या बाँस के घेरे के जैसी थी। चारों दिशाओं में बनाए गए तोरणद्वारों पर सुंदर नक्काशी की गई थी।
    7. कालांतर में स्तूप के टीले को भी मूर्तियों से सजाया जाने लगा। उदाहरण – अमरावती का स्तूप।
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