एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 11 महात्मा गांधी और राष्ट्रिय आंदोलन
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 11 महात्मा गांधी और राष्ट्रिय आंदोलन पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 3 के उत्तर सत्र 2024-25 के संशोधित रूप में यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं। कक्षा 12 इतिहास पाठ 11 के सभी प्रश्नों के उत्तर यहाँ सरल भाषा में समझाकर लिखे गए हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 11
कक्षा 12 इतिहास अध्याय 11 महात्मा गांधी और राष्ट्रिय आंदोलन के प्रश्नों के उत्तर
महात्मा गाँधी ने खुद को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए क्या किया?
महात्मा गाँधी ने खुद को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए निम्नलिखित कार्य किए:
- महात्मा गाँधी आम लोगों की तरह वस्त्र धारण करते थे तथा जन-सेवा के कार्यों में लगे रहते थे।
- गाँधी जी ने खादी के वस्त्र पहने, हाथ में लाठी उठाई तथा चरखा चलाया। उन्होंने अपने भाषणों में कई बार यह दोहराया कि भारत गाँवों में बसता है।
- गाँधी जी सामान्य लोगों की ही भाषा बोलते थे 1921 ई. में दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान गाँधी जी ने अपना सिर मड़वा लिया था तथा गरीबों के साथ तादम्य स्थापित करने के लिए वे सूती वस्त्र पहनने लगे थे।
- जनसामान्य के प्रति गाँधी जी का दृष्टिकोण बहुत ही सहानुभूतिपूर्ण था। गाँधी जी आम लोगों के बीच घुल-मिलकर रहते थे।
किसान महात्मा गाँधी को किस तरह देखते थे?
किसान महात्मा गाँधी को अपना मसीहा मानते थे। वे गाँधी जी को महात्मा, गाँधी बाबा जैसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते थे। गाँधी जी की चमत्कारिक शक्तियों के संबंध में कई स्थानों पर अनके प्रकार की अफ़वाहें फ़ैलने लगी। कई जगहों पर जनसामान्य का यह सोचना था कि उन्हें किसानों का कष्ट दूर करने के लिए ही भेजा गया है तथा उनके पास इतनी शक्ति थी कि वे सभी अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकार कर सकते थे। इस प्रकार अफ़वाहें जोर पकड़ने लगी कि किसी में भी गाँधी का विरोध करने की शक्ति नहीं थी और उनका विरोध करने वालों को भयंकर परिणाम भुगतने पड़ते थे। बहुत से गाँवों में यह अफ़वाह थी कि गाँधी जी की आलोचना करने वाले लोगों से घर रहस्यात्मक तरीके से गिर गए थे अथवा खेतों में लहरा रही रही-भरी फ़सल बिना किसी कारण नष्ट हो गई। किसान गाँधी जी को अपना उद्धारक मानते थे। वे मानते थे कि गाँधी जी उनकी मान-मर्यादा की रक्षा करेंगे और उनकी स्वायत्तता वापस दिलवा सकते हैं।
नमक कानून स्वतंत्रता संघर्ष का महत्त्वपूर्ण मुद्दा क्यों बन गया था?
नमक एक बहुमूल्य राष्ट्रिय सम्पदा थी जिस पर औपनिवेशिक सरकार ने अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया था। यह सामान्य लोगों को एक महत्वपूर्ण सुलभ ग्राम-उद्योग से ही वंचित नहीं करता था बल्कि प्रकृति के माध्यम से बहुतायत में उत्पादित सम्पदा का भी विनाश करता था। इसी कारण गाँधी जी ने औपनिवेशिक शासन के विरोध के लिए नमक का प्रतीक रूप में चयन किया तथा देखते-ही-देखते नमक काननू स्वतंत्रता संघर्ष का महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया। महत्वपूर्ण मुद्दा बनने के मुख्य कारण:
- प्रत्येक घर में नमक भोजन का एक आवश्यक अंग था। जनसामान्य नमक काननू को घृणा की दृष्टि से देखते थे। भारतीयों द्वारा घरेलु उपयोग के लिए भी स्वयं नमक बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
- नमक कानून के कारण भारतीयों को मजबूरीवश दुकानों से ऊँचे दामों पर नमक खरीदना पड़ता था। जनसामान्य में नमक कानून के बारे में काफ़ी असंतोष व्याप्त था।
- नमक पर सरकार के एकाधिकार ने लोगों को एक महत्वपूर्ण परंतु सरलतापूर्वक उपलब्ध ग्राम-उद्योग से वंचित कर दिया।
- नमक कानून ब्रिटिश भारत के सबसे घृणित कानूनों में से एक था। जिसके अनुसार नमक के उत्पादन तथा विक्रय पर राज्य का एकाधिकार था।
राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के लिए अख़बार महत्त्वपूर्ण स्त्रोत क्यों हैं?
राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के लिए अख़बार कई कारणों से महत्वपूर्ण स्रोत्र है:
- राष्ट्रीय आंदोलन के समय अखबारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जो लोग अख़बार पढ़ते हैं वे देश में होने वाली सभी घटनाओं, गतिविधियों तथा विचारों की जानकारी पा सकते हैं।
- अख़बारों से राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं तथा क्रांतिवीरों के बारे में जानकारी मिलती है।
- अखबारों से गाँधी जी की गतिविधियों पर नज़र रखी जाती थी। ऐसा इसलिए किया जाता था क्योंकि गाँधी जी के बारे में समाचारों को विस्तृत रूप से प्रकाशित किया जाता था।
- अखबारों से राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में पक्ष तथा विपक्ष दोनों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इससे ब्रिटिश अधिकारियों के बारे में तथा जनसामान्य दोनों के दृष्टिकोण के बारे में जान पाते हैं।
- राष्ट्रीय आंदोलन में अखबार जनसंचार एक महत्वपूर्ण साधन है तथा लेखकों, प्रबुद्ध लोगों, साहित्यकारों, पत्रकारों, कवियों आदि विचारकों से प्रभावित होते हैं।
चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक क्यों चुन गया?
चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक चुनने का कारण:
- चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक इसलिए चुना गया क्योंकि यह जनसामान्य से संबंधित था। चरखा स्वदेशी तथा आर्थिक प्रगति का प्रतीक था।
- गाँधी जी मशीनीकरण के विरूद्ध थे तथा वे यह मानते थे कि मशीनों ने मानव को गुलाम बनाकर श्रमिकों के हाथों से काम तथा रोजगार छीन लिया है।
- गाँधी जी चरखे को एक आदर्श समाज के प्रतीक के रूप में देखते थे। वे प्रतिदिन अपना कुछ समय चरखा चलाने में बिताते थे।
- गाँधी जी का विचार था कि चरखा गरीबों को पूरक आमदनी प्रदान करके उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बना सकता है।
- पारंपरिक समाज में सूत कातने के काम को अच्छा नहीं समझा जाता था। गाँधीजी द्वारा सूत कातने के काम ने मानसिक श्रम तथा शारीरिक श्रम की गहराई को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध कैसे था?
असहयोग आंदोलन गाँधी जी द्वारा चलाया गया प्रथम जन-आंदोलन था। असहयोग आंदोलन 1 अगस्त 1920 में औपचारिक रूप से प्रारंभ हुआ। अँग्रेजों द्वारा प्रस्तावित अन्यायपूर्ण कानूनों तथा कार्यों के विरोध में देशव्यापी अहिंसक आंदोलन था। इस आंदोलन के दौरान विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों तथा कॉलेजों में जाना बंद कर दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों तथा नगरों में श्रमिक हड़ताल पर चले गए। असहयोग आंदोलन का आरंभ कई कारणों से हुआ था। वर्ष 1919 में पारित रोलेट एक्ट के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगा दिया गया। इसके साथ ही पुलिस शक्तियों को बढ़ाया गया। दो साल तक बिना किसी ट्रायल के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रक्षा व्यय में भारी वृद्धि के साथ सीमा शुल्क भी बढ़ा दिया गया था। जिससे सभी चीजों की कीमतें दोगुनी हो गई। बढ़ती महँगाई की वजह से साधारण लोगों को बहुत परेशानी हुई। इस के पश्चात् देश में निर्मित उपयोग पर बल दिया गया तथा विदेशी चीजों का बहिष्कार किया।
असहयोग आंदोलन प्रतिरोध आंदोलन इसलिए भी था क्योंकि राष्ट्रीय नेता उन अँग्रेज अधिकारियों को दंड दिलवाना चाहते थे जो अमृतसर के जलियावाला बाग में शांतिपूर्ण प्रदर्शन में शामिल प्रदर्शनकारियों पर होने वाले अत्याचार के उत्तरदायी थे। उन्हें सरकार ने कई महीनों के बाद भी किसी प्रकार का दडं नहीं दिया था। असहयोग आंदोलन प्रतिरोध था क्योंकि यह खि़लाफ़त आंदोलन को सहयोग करके देश के दो प्रमुख धार्मिक समुदायों हिंदू तथा मुसलमानों को मिलाकर औपनिवेशिक शासन के प्रति जनता के असहयोग को अभिव्यक्त करने का माध्यम था।
जानकारों के अनुसार 1921 ई. में 396 हड़तालें हुई इसमें 6 लाख श्रमिक सम्मिलित थे तथा इससे 30 लाख कार्य दिवसों की हानि हुई। असहयोग आंदोलन का प्रतिरोध देश के ग्रामीण क्षेत्रों में भी देखने को मिला। किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों को सामान ढोने से मना कर दिया। असहयोग आंदोलन का मुख्य उद्देश्य औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध करना था।
गोल मेज सम्मेलन में हुई वार्ता से कोई नतीजा क्यों नहीं निकल पाया?
प्रथम गोलमेज़ सम्मेलन
पहला गोलमेज सम्मेलन 12 नवंबर 1930 में लंदन में हुआ। वार्ता थी, जिसमें ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों को बराबर का दर्जा दिया गया। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में 89 सदस्यों में से 13 ब्रिटिश, 76 भारतीय राजनीतिक दलों से जैसे- भारतीय उदारवादी दल, हिंदू महासभा, दलितवर्ग, रजवाड़ों के प्रतिनिधि थे। इसमें देश के प्रमुख नेता ही शामिल नहीं हुए जिसके कारण यह बैठक निरर्थक साबित हुई। 1931 जनवरी में गाँधी जी जेल से रिहा हुए। इसके बाद ही वायसराय के साथ लंबी वार्ता के बाद गाँधी इरविन समझौता हुआ। इसकी शर्त थी- सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, तटीय इलाकों नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था तथा सारे कैदियों की रिहाई शामिल थी।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन
दूसरा गोलमजे सम्मेलन 7 सितंबर 1931 में प्रारंभ हुआ। महात्मा गाँधी 12 सितंबर 1931 में लंदन पहुँचे। इस सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने दलित वर्गों के लिए कुछ स्थान आरक्षित करने की माँग की, किंतु गाँधीजी ने इसे अस्वीकार कर दिया। महात्मा गाँधी ने भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की माँग की। गाँधाी जी ने कहा साम्प्रदायिक समस्या भी अत्यधिक जटिल बन गई है। यदि भारतीय प्रतिनिधि आपस में साम्प्रदायिक समस्या का हल नहीं निकाल सके तो उन्हें इसका निर्णय अँग्रेजों पर छोड़ देना चाहिए। सम्मेलन के अधिकांश प्रतिनिधियों ने मेक्डॉनल्ड के निर्णय के प्रति आस्था प्रकट की। गाँधी जी ने केवल मुसलमानों तथा सिक्खों के लिए मेक्डॉनल्ड की मध्यस्थता स्वीकार की थी। दलित वर्गों के लिए नहीं। परंतु वहाँ प्रत्येक जाति के प्रतिनिधियों ने अपनी बढा़ -चढाकर पेश की। ब्रिटिश सरकार ने प्रत्यके जाति के प्रतिनिधि ऐसे ही चुने थे, जिनमें कोई समझौता न हो सका। अतः साम्प्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल सका।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन
तीसरा गोलमेज सम्मेलन 17 नवंबर 1932 से 24 दिसंबर 1932 तक चला, कांग्रेस ने सम्मेलन का बहिष्कार किया। इसका इंग्लैण्ड के मजदूर दल ने बहिष्कार किया। भारत में कांग्रेस ने फि़र आंदोलन की शुरूआत की। अतः कांग्रेस ने भी इसका बहिष्कार किया। अतः यह स्पष्ट है कि इन सम्मेलनों की वार्ताओं से कोई परिणाम निकलकर सामने नहीं आया।
महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को किस तरह बदल डाला?
महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा को एक नया मोड़ दिया। गाँधी जी केवल एक राजनीतिक संघर्ष के पथप्रदर्शक नहीं थे, बल्कि उन्होंने हिंसा के युग में अहिंसा जैसी नई तकनीक का गाँधी जी ने सर्वप्रथम पूरे भारत की यात्रा की तथा विभिन्न वर्गों की समस्याओं को जाना। उन्होंने चंपाचरण तथा खेड़ा के द्वारा किसानों तथा मजदूरों की समस्याओं को उठाया। गाँधीजी के तरीके तथा विचार के मुख्य सिद्धांत थे – अहिंसा, लोकशक्ति में विश्वास, सत्याग्रह, साधान तथा श्रेष्ठता में विश्वास। गाँधीजी ने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सही मायने ने जनाधार वाला संगठन बनाया।
गाँधी जी महिलाओं तथा पुरूषों को समान अधिकार दिलाना चाहते थे। हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ाना चाहते थे तथा छुआछूत को समाप्त करना चाहते थे। गाँधी जी ने अगस्त 1920 ई. में असहयोग आंदोलन चलाया, 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया तथा 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चलाया। गाँधी जी ने राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार तथा राष्ट्रीयवादी संदेश के संचार के लिए शासकों की भाषा के स्थान पर मातृभाषा का चुनाव किया। अतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन के अहिंसात्मक रूप ने जनसाधारण की भागीदारी को प्रेरित किया।