एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत पाठ 8 सूक्तय:
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत अध्याय 8 – अष्टम: पाठ: सूक्तय: शेमुषी भाग 2 के प्रश्न उत्तर तथा पाठ का हिंदी अनुवाद सीबीएसई सत्र 2024-25 के लिए संशोधित किए गए हैं। कक्षा 10 संस्कृत के पाठ 8 की कहानी तमिल भाषा के एक प्रसिद्ध ग्रन्थ से ली गई है जिसमें मानव जाति के लिए जीवन उपयोगी सत्य को बताया गया है। यहाँ दिए गए हिंदी अनुवाद की मदद से विद्यार्थी पूरे पाठ को आसानी से समझकर अभ्यास के प्रश्नों को स्वयं कर सकते हैं।
कक्षा 10 संस्कृत अध्याय 8 के लिए एनसीईआरटी समाधान
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत अष्टम: पाठ: सूक्तय:
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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पिता यच्छति पुत्राय बाल्ये विद्याधनं महत्। | पिता पुत्र को बचपन में विधारुपी बहुत धन देता है। |
पिताऽस्य किं तपस्तेपे इत्युक्तिस्तत्कृतज्ञता॥1॥ | इससे पिता ने क्या ताप किया? यह कथन ही उसकी कृतज्ञता है। |
अवक्रता यथा चित्ते तथा वाचि भवेद् यदि। | मन में जैसी सरलता हो, वैसी ही यदि वाणी में हो, |
तदेवाहु: महात्मान: समत्वमिति तथ्यत:॥2॥ | तो उसे ही महात्मा लोग वास्तव में समत्व कहते हैं। |
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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त्यक्त्वा धर्मप्रदां वाचं परुषां योऽभ्युदीरयेत्। | जो धर्मप्रद वाणी को छोड़कर कठोर वाणी बोले |
परित्यज्य फलं पक्वं भुङ्क्तेऽपक्वं विमूढधी:॥3॥ | वह मुर्ख (मानो) पके हुए फल को छोड़कर कच्चा फल खाता है। |
विद्वांस एव लोकेऽस्मिन् चक्षुष्मन्त: प्रकीर्तिता:। | इस संसार में विद्वान लोग ही आँखों वाले कहे गए हैं। |
अन्येषां वदने ये तु ते चक्षुर्नामनी मते॥4॥ | दूसरों के (मूर्खों के) मुख पर जो आँखें हैं, वे तो केवल नाम की ही हैं। |
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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यत् प्रोक्तं येन केनापि तस्य तत्त्वार्थनिर्णय:। | जिस किसी के द्वारा भी जो कहा गया है, उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय |
कर्तुं शक्यो भवेद्येन स विवेक इतीरित:॥5॥ | जिसके द्वारा किया जा सकता है, उसे विवेक कहा गया है। |
वाक्पटुधैर्यवान् मन्त्री सभायामप्यकातर:। | जो मंत्री बोलने में चतुर, धैर्यवान और सभा में भी निडर होता है |
स केनापि प्रकारेण परैर्न परिभूयते॥6॥ | वह शत्रुओं के द्वारा किसी भी प्रकार से अपमानित नहीं किया जा सकता है। |
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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य इच्छत्यात्मन: श्रेय: प्रभूतानि सुखानि च। | जो (मनुष्य) अपना कल्याण और बहुत अधिक सुख चाहता हैं, |
न कुर्यादहितं कर्म स परेभ्य: कदापि च॥7॥ | उसे दूसरों के लिए कभी अहितकारी कार्य नहीं करना चाहिए। |
आचार: प्रथमो धर्म: इत्येतद् विदुषां वच:। | आचरण (मनुष्य का) पहला धर्म है, यह विद्वानों का वचन है। |
तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषत:॥8॥ | इसलिए सदाचार की रक्षा प्राणों से भी बढ़कर करनी चाहिए। |