एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 सुभाषितानि
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत अध्याय 5 – पञ्चम: पाठ: सुभाषितानि शेमुषी भाग 2 के अभ्यास में दिए गए सभी प्रश्न उत्तर विद्यार्थी सीबीएसई सत्र 2025-26 के लिए यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं। कक्षा 10 संस्कृत के पाठ 5 में संस्कृत के सार्वभौमिक सत्य को बताने वाले पदों को बहुत ही मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। एक एक पद का हिंदी अनुवाद सरल भाषा में यहाँ दिया गया है ताकि किसी भी छात्र को कोई परेशानी न हो।
कक्षा 10 संस्कृत अध्याय 5 के लिए एनसीईआरटी समाधान
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत पञ्चम: पाठ: सुभाषितानि
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु: । | निश्चय से आलस्य मनुष्यों के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा दुश्मन है। |
| नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति ॥1॥ | परिश्रम के समान उसका कोई मित्र नहीं है जिसको करके वह दुखी नहीं होता है। |
| गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो, | गुणवान् व्यक्ति गुण (के महत्व) को जानता है गुणहीन नहीं जानता। |
| बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: । | बलवान् व्यक्ति बल (के महत्व) को जानता है जबकि बलहीन (निर्बल) नहीं जानता है। |
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:, | कोयल वसन्त ऋतु के (महत्व) गुण को जानती है, कौआ नहीं जानता है |
| करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥2॥ | और शेर के बल को हाथी जानता है चूहा नहीं जानता। |
| निमित्तमुद्दिश्य हि य: प्रकुप्यति, | निश्चय से जो किसी कारण से अत्यधिक क्रोध करता है |
| ध्रुवं स तस्यापगमे प्रसीदति । | निश्चित रूप से वह उस कारण के समाप्त होने (मिट जाने) पर प्रसन्न भी हो जाता है। |
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| अकारणद्वेषि मनस्तु यस्य वै, | परन्तु जिसका मन बिना किसी कारण के किसी से द्वेष करता है |
| कथं जनस्तं परितोषयिष्यति ॥3॥ | उस मनुष्य को कौन संतुष्ट कर सकता है। |
| उदीरितोऽर्थ: पशुनापि गृह्यते, | कहा हुआ अर्थ (मतलब/संकेत) पशु से भी ग्रहण कर लिया जाता है। |
| हयाश्च नागाश्च वहन्ति बोधिता: । | घोड़े और हाथी भी कहे जाने पर ले जाते हैं। |
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जन:, | विद्वान बिना कहे ही बात का अंदाजा लगा लेता है |
| परेङि्गतज्ञानफला हि बुद्धय: ॥4॥ | क्योंकि बुद्धियाँ दूसरों के संकेत से उत्पन्न ज्ञान रूपी फल वाली होती हैं। |
| क्रोधो हि शत्रु: प्रथमो नराणां, देहस्थितो देहविनाशनाय । | निश्चय से मनुष्यों के शरीर में रहने वाला क्रोध शरीर को नष्ट करने के लिए (उनका) पहला शत्रु है। |
| यथास्थित: काष्ठगतो हि वह्नि:, | जैसे लकड़ी में स्थित आग उसे जलाने का कारण होती है। |
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| स एव वह्निर्दहते शरीरम् ॥5॥ | वही आग शरीर को भी जलाती है। |
| मृगा मृगै: सङ्गमनुव्रजन्ति, | मृग (हिरण) मृगों (हिरणों) के साथ पीछे-पीछे चलते हैं। |
| गावश्च गोभि: तुरगास्तुरङ्गैः । | गाएँ गायों के साथ, घोड़े-घोड़ों के साथ, |
| मूर्खाश्च मूर्खै: सुधिय: सुधीभि:, | मूर्ख मूर्खों के साथ तथा बुद्धिमान बुद्धिमानों के साथ जाते हैं |
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| समान-शील-व्यसनेषु सख्यम् ॥6॥ | समान व्यवहार और स्वभाव वालों में (परस्पर/आपसी) मित्रता होती है। |
| सेवितव्यो महावृक्ष: फलच्छायासमन्वित: । | फल और छाया से युक्त महान वृक्ष आश्रय (सहारा) लेने योग्य होता है। |
| यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते ॥7॥ | यदि भाग्यवश फल न भी हों तो भी छाया किस के द्वारा रोकी जा सकती है? अर्थात् किसी के द्वारा नहीं। |
| अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । | मन्त्र से रहित (हीन) अक्षर नहीं होता है। जड़ जड़ी-बूटियों से रहित नहीं होती है। |
| संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
|---|---|
| अयोग्य: पुरुष: नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ: ॥8॥ | योग्यता से रहित व्यक्ति वास्तविक पुरुष (इनसान) नहीं होता है। वहाँ गुणों को वस्तुओं-व्यक्तियों से जोड़ने वाला दुर्लभ होता है। |
| संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता । | धनवान होने अथवा (और) धनहीन होने पर महान् लोगों की एकरूपता (एक जैसी कार्यशीलता) होती है। |
| उदये सविता रत्तो रत्तश्स्तमये तथा ॥9॥ | जैसे उदय होते समय पर सूर्य लाल रंग का होता है तथा अस्त होने के समय पर भी लाल रंग का होता है। |
| विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चिन्निरर्थकम् । | निश्चय से इस विचित्र (अनोखे) संसार में कुछ भी निरर्थक (बेकार) नहीं है। |
| अश्वश्चेद् धावने वीर: भारस्य वहने खर: ॥10॥ | क्योंकि यदि घोड़ा दौड़ने में उपयोगी (वीर) होता है तो गधा भार को उठाने में (ढोने) में उपयोगी होता है। |












