एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 12 संविधान का निर्माण
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 12 संविधान का निर्माण पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 3 के उत्तर सीबीएसई तथा राजकीय बोर्ड सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। कक्षा 12 इतिहास के पाठ 12 के सभी प्रश्नों के उत्तर सवाल जवाब सरल भाषा में विस्तार से समझाए गए हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 12
कक्षा 12 इतिहास अध्याय 12 संविधान का निर्माण के प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य प्रस्ताव में किन आदर्शों पर ज़ोर दिया गया था?
13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने ʻउद्देश्य प्रस्तावʼ पेश किया।
उद्देज्य प्रस्ताव में निम्न महत्वपूर्ण बातों को शामिल किया गया:
- संविधान सभा यह घोषणा करती है कि इसका उद्देश्य व संकल्प भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाना है जिसके भावी शासन के लिए संविधान का निर्माण करना है।
- ब्रिटिश भारत के क्षेत्रों व देशी रियासातों को तथा बाहर के सभी क्षेत्रों जो स्वतंत्र व प्रभुसत्ता सम्पन्न भारत में मिलना चाहते हैं को मिलाकर भारत देश का गठन किया जाएगा।
- उपर्युक्त सभी क्षेत्र अपनी वर्तमान सीमाओं सहित संविधान सभा द्वारा निर्धारित की गयी सीमा में या भविष्य में परिवर्तित सीमा में स्वतंत्र इकाई होंगे।
- भारतीय संघ की स्वतंत्रता व प्रभुसत्ता (प्रभुत्व सम्पन्नता) का समस्त स्रोत् भारत की जनता है।
- भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, न्याय, प्रतिष्ठा, धर्म, उपासना, विधि के समक्ष समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विश्वास व कार्य की स्वतंत्रता होगी।
- भारत के अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के पर्याप्त संरक्षण दिया जाएगा।
- भारतीय गणतंत्र के राज्य क्षेत्रों की अखण्डता एवं उनके जल, स्थल एवं वायु क्षेत्र के प्रभुत्व सम्पन्नता व स्वतंत्रता की रक्षा की जाएगी।
- प्राचीन देश भारत ने विश्व में सदैव समुचित तथा सम्मानित स्थान प्राप्त किया है। हम इसके सम्मान की रक्षा करेंगे।
- हम सभी भारतवासी विश्व में शांति बनाए रखने तथा मानव जाति के कल्याणकारी कार्य में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे।
उद्देश्य प्रस्ताव के उपर्युक्त कथनों पर 8 दिन तक विस्तारपूर्वक विचार किया गया। 22 दिसंबर 1946 को संविधान सभा ने उद्देश्य प्रस्ताव को पास कर दिया।
विभिन्न समूह अल्पसंख्यक शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
विभिन्न समूह ʻअल्पसंख्यकʼ शब्द को अलग तरह से परिभाषित किया है:
- कुछ लोग मुसलमानों को अल्पसंख्यक कह रहे थे तथा उनके अनुसार भारत में मुसलमानों की संख्या बहुसंख्यक हिंदुओं के अनुपात में काफ़ी कम है, इसलिए वही अल्पसंख्यक हैं।
- कुछ लोग सिख धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक बता रहे थे तथा उन्हें अल्पसंख्यकों की सुविधा देने की माँग कर रहे थे।
- कुछ लोगों ने दलितों को वास्तविक अल्पसंख्यक बताया। दलितों के प्रतिनिधि के खांडेलकर के अनुसार दलित ही हैं, जिन्हें हज़ारों सालों से दबाया-कुचला गया है।
- कुछ लोग आदिवासी लोगों को सही अल्पसंख्यक बता रहे थे। आदिवासी समहू के एक प्रतिनिधि जयपाल सिंह ने कहा कि भारत में कोई ऐसा समूह जिसके साथ हजारों वर्षों से उचित व्यवहार नहीं हुआ है तो वह आदिवासी समूह ही है, जो 6000 वर्षों से अपमानित और अपेक्षित किया जाता रहा है।
- एन. जी. रंगाश ने जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किए गए उद्देश्य प्रस्ताव का समर्थन करते हुए अल्पसंख्यकों के संबंध में सबसे अलग परिभाषा दी। इनके अनुसार अल्पसंख्यक से देश की जनता है, जो इतने वर्षों से दलित और पीड़ित है तथा साधारण नागरिकों के अधिकारों का लाभ नहीं उठा पा रही। इस तरह अलग-अलग समूह के लोगों ने अल्पसंख्यकों को अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया।
- मद्रास के पी पोकर बहादुर ने संविधान सभा में अल्पसंख्यकों को अलग से निर्वाचिका का देने की बजाय संयुक्त निर्वाचन देने की बजाय संयुक्त निर्वाचन देने की वकालत की। पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने भी अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचिका का विरोध किया।
प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
संविधान सभा के कुछ सदस्य केंद्र को शक्तिशाली बनाने के समर्थक थे, जबकि कुछ अन्य सदस्य प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों के पक्ष में थे। ऐसे सदस्य द्वारा प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में कई महत्वपूर्ण तर्क दिए। संविधान में तीन सूची को बनाया गया- केंद्र सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। केंद्र सूची के विषय सिर्फ़ केंद्र सरकार तथा राज्य सूची के विषय में सिर्फ़ राज्य सरकारों के अधीन होने थे। समवर्ती सूची के विषय में केंद्र तथा राज्य दोनों को संयुक्त जिम्मेदारी प्रदान की गई थी। मद्रास के सदस्य के. सन्थनम ने राज्य के अधिकारों की पुरजोर वकालत की। उन्होंने न केवल प्रांतों बल्कि केंद्र को भी शक्तिशाली बनाने के लिए शक्तियों के पुनर्वितरण की आवश्यकता पर बल दिया। केंद्र के कुछ दायित्वों में कमी करके उन्हें राज्य सरकारों को सौंप देने से अधिक शक्तिशाली केंद्र का निर्माण किया जा सकता था।
सन्थनम ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह दलील देना कि ʻसंपूर्ण शक्तियाँ केंद्र को सौंप देने से वह शक्तिशाली हो जाएगाʼ केवल एक गलतफ़हमी है। सन्थमनम का तर्क था कि शक्तियों का विद्यमान वितरण विशेष रूप से राजकोषीय प्रावधान, प्रांतों को पंगु बनाने वाला था। इसके अनुसार भू-राजस्व के अतिरिक्त अधिकांश कर केंद्र सरकार के अधिकार में थे। इस प्रकार, धन के अभाव में राज्यों में विकास परियोजनाओं को कार्यान्वित करना संभव नहीं था। प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में के- सन्थनम का तर्क था कि केंद्रीय नियंत्रण में बहुत अधिक विषयों को रखे जाने तथा बिना सोचे-समझे शक्तियों के प्रस्तावित वितरण को लागू किए जाने के परिणाम अधिक हानिकारक होंगे, इसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में सारे प्रांत केंद्र के विरूद्ध विद्रोह पर उतारू हो जायेंगे। मैसूर के सर ए- रामास्वामी मुदालियार भी प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में थे। अतः ऐसे कई तर्क थे जो प्रांतों को ज्यादा शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में थे।
महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिन्दुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?
महात्मा गाँधी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा हो सकती हैः वह हिंदुओं तथा मुसलमानों को, उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। परंतु उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिंदुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी। जैसे-जैसे साम्प्रदायिक टकराव गहरे होते जा रहे थे, हिंदी और उर्दू एक-दुसरे से देर जा रहीं थी। एक तरफ़ तो फ़ारसी और अरबी मूल के सारे शब्दों को हटाकर हिंदी को संस्कृतनिष्ट बनाने की कोशिश की जा रही थी। दूसरी तरफ़ उर्दू लगातार फ़ारसी के नजदीक होती जा रही थी। परिणामस्वरूप भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई। लेकिन हिंदुस्तान के साझा चरित्र में महात्मा गाँधी की आस्था कम नहीं हुई।
वे कौन-सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप तय किया?
बहुत-सी ऐतिहासिक ताकतों ने संविधान का स्वरूप तय किया जो इस प्रकार हैं:
- फ्रैंक एंथनी का विचार था, तकनीकि रूप से कांग्रेस के, किंतु आध्यात्मिक स्तर पर आर.एस.एस तथा हिंदू महासभा के सदस्य थे। न सबकी विचारधााराओं ने संविधान के स्वरूप निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- संविधान में जिस प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया गया उस पर राष्ट्रीय आंदोलन की गहरी छाप है। राष्ट्रीय आंदोलनों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अहम भूमिका निभाई। कांग्रेस अनेक विचारधाराओं से संबंधित लोग सदस्य थे जिनका प्रभाव संविधान पर देखा जा सकता है।
- भारत के संविधान पर औपनिवेशिक शासन के समय पास किए गए अधिनियम का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण – भारतीय संविधान में स्थापित शासन व्यवस्था पर 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव है।
- संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार अक्टबूर 1946 ई. को किया गया था। इसके सदस्यों का चुनाव 1946 ई. के प्रांतीय चुनावों पर आधारित था। संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय प्रांतों द्वारा भेजे गए सदस्यों के साथ-साथ रियासतों के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया गया था।
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा विधि-विशेषज्ञों को संविधान सभा में स्थान दिये जाने पर विशेष ध्यान दिया गया था। सुप्रसिद्ध विधि-वेत्ता बी. आर. अम्बेडकर संविधान सभा के सर्वाधिक प्रभावशाली सदस्यो में से एक थे। वे संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। के.के. एम तथा मद्रास के वकील अल्लादि कृष्ण स्वामी अय्यर बी. आर. अम्बेडकर के प्रमुख सहयोगी थे। इन दोनों के द्वारा संविधान के प्रारूप पर कई सुझाव पेश किए गए।
- प्रेस में होने वाली आलोचना ने भी संविधान के स्वरूप निर्धारण में योगदान दिया।
- एन.जी. रंगा तथा जयपाल सिंह जैसे आदिवासी नेताओं ने संविधान का स्वरूप तय करते समय इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि संविधान में आदिवासियों की सुरक्षा व उन्हें आम आदमियों की दशा में लाने के प्रावधान किए जाए।
दलित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।
दलित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा:
- डॉ. अम्बेडकर ने संविधान के माध्यम से अस्पृश्यता का उन्मूलन करने, तालाबों, कुओं तथा मंदिरों के दरवाजे सभी के लिए खोले जाने तथा निम्न जाति के लोगों को विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का समर्थन किया।
- मध्य प्रांत की दलित जातियों के एक प्रतिनिधि श्री के. जे. खाण्डेलकर ने दलित जातियों के लिए विशेष अधिकारों का दावा किया।
- छुआछूत (अस्पृश्यता) की समस्या को केवल संरक्षण देने से हल नहीं किया जा सकता बल्कि इसके लिए जाति भेदभाव वाले सामाजिक नियमों, कानूनों तथा नैतिक मान्यताओं को समाप्त करना जरूरी है।
- मद्रास के जे. नगप्पा ने कहा था, ʻहम सदा कष्ट उठाते रहे हैं परंतु अब हम और अधिक कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं। हमें अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो गया है। हम जानते हैं कि हमें अपनी बात कैसे मनवानी है।ʼ अस्पृश्यता के उन्मूलन की बात भी कही गयी।
- दलितों को विधानमंडलों तथा सरकार नौकरियों में आरक्षण दिया जाए।
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केंद्र सरकार की जरूरत के बीच क्या संबंध देखा?
संविधान सभा के कुछ सदस्यों के अनुसार तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में एक शक्तिशाली केंद्र सरकार की बहुत आवश्यकता थी। वे केंद्र सरकार को एक शक्तिशाली रूप में देखना चाहते थे।
गोपालस्वामि अय्यर प्रांतों की शक्तियों को बढ़ाये जाने पर केंद्र को अधिक शक्तिशाली देखना चाहते थे। उनका विचार था कि केंद्र अधिक मजबूत होना चाहिए।
बी. आर. अम्बेडकर के विचार थे कि एक मजबूत केंद्र ही देश शांति तथा सुव्यवस्था की स्थापना करने में समर्थ हो सकता था। उन्होंने घोषणा की कि वह एक शक्तिशाली तथा एकीकृत केंद्र 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केंद्र बनाया था, उससे भी अधिक शक्तिशाली केंद्र चाहते हैं। केंद्र की शक्तियों में वृद्धि किए जाने के समर्थक सदस्यों का विचाार था कि एक शक्तिशाली केंद्र ही साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में समर्थ हो सकता है।
औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपी गयी एकात्मक शासन- व्यवस्था पहले से ही विद्यमान थी। उस समय में हुई घटनाओं से केंद्र को बढ़ावा मिला।
संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तरप्रदेश) के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने भी एक शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता पर बल दिया। उनकी दलील थी कि
1. देश के हित मे योजना बनाने के लिए
2. उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटाने के लिए
3. उचित शासन व्यवस्था की स्थापना करने के लिए
4. विदेशी आक्रमण से देश की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली केंद्र अतिआवश्यक है।
विभाजन से पूर्व कांग्रेस ने प्रांतों को पर्याप्त स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी। कुछ सीमा तक मुस्लिम लीग को इस बात का विश्वास दिलाने का प्रयास था कि जिन प्रांतों में लीग की सरकार बनी है वहाँ केंद्र द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। लेकिन विभाजन को देखते हुए ज्यादातर राष्ट्रवादियों की सोच बदल चुकी थी। उनका मानना था कि आप सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए पहले जैसी नहीं रही है।
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
भारत में शुरूआत से ही अनेक भाषाएँ प्रचलित थी। संविधान सभा के एक शुरूआती सत्र में संयुक्त प्रांत के कांग्रेसी सदस्य आर.बी. धुलेकर ने इस बात के लिए पुरजोर शब्दों में आवाज उठाई थी कि हिंदी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाए। देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। जब संविधान सभा के सामने की भाषा का मुद्दा आया तो इस पर कई महीनों तक बहस होती रही तथा कई बार तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हुई। 1930 के दशक तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि हिंदुस्तान की राष्ट्रीय भाषा को दर्जा दिया जाना चाहिए। हिंदुस्तानी की उत्पत्ति हिंदी तथा उर्दू के मेल से हुई थी। यह भारतीय जनता के एक विशाल भाग की भाषा थी। विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई यह एक साझी भाषा बन गई थी। भाषा का मुद्दा तनाव का कारण बन गया था। महात्मा गाँधी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा हो सकती हैः वह हिंदुओं तथा मुसलमानों को , उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। परंतु उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिंदुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी। जैसे-जैसे साम्प्रदायिक टकराव गहरे होते जा रहे थे, हिंदी और उर्दू एक-दूसरे से दूर जा रहीं थी। एक तरफ़ तो फ़ारसी और अरबी मूल के सारे शब्दों को हटाकर हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने की कोशिश की जा रही थी। दूसरी तरफ़ उर्दू लगातार फ़ारसी के नजदीक होती जा रही थी।
परिणामस्वरूप भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई। समिति ने राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर हिंदी समर्थकों तथा हिंदी विरोधियों के मध्य उत्पन्न हुए गतिरोध को समाप्त करने के लिए एक फ़ार्मूला विससित कर दिया था। समिति का सुझाव था कि देवनागरी लिपि में लिखि हिंदी को भारत की राजकीय भाषा का दर्जा दिया जाए, परंतु समिति द्वारा इस फ़ार्मूले की घोषणा नहीं की गई, क्योंकि उसका विचार था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए क्रमशः आगे बढ़ाना चाहिए।
फ़ॉर्मूले के अनुसार:
(1) यह निश्चित किया गया कि पहले 15 वर्षों तक सरकारी कार्यों में अँग्रेजी भाषा का प्रयोग जारी रखा जाएगा।
(2) प्रत्येक प्रांत को अपने सरकारी कार्यों के लिए किसी एक क्षेत्रीय भाषा के चुनाव का अधिकार होगा।
अतः संविधान सभा की भाषा समिति ने विभिन्न पक्षों की भावनाओं को संतुष्ट करने तथा एक समाधान प्रस्तुत करने के उद्देश्य से हिंदी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर राजभाषा घोषित किया।