एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 9 उपनिवेशवाद और देहात
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 9 उपनिवेशवाद और देहात पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 3 के प्रश्न उत्तर सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। कक्षा 12 इतिहास पाठ 9 के छात्र एनसीईआरटी अभ्यास में दिए गए सभी सवाल जवाब यहाँ से पीडीएफ और विडियो के रूप में प्राप्त कर सकते हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 9
कक्षा 12 इतिहास अध्याय 9 उपनिवेशवाद और देहात के प्रश्नों के उत्तर
ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
धनवान किसानों के समूह को जोतदार कहा जाता था जो अठारहवीं शताब्दी के अंत में जमींदारों की बड़ी मुसीबतों का फ़ायदा उठाकर अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हुए थे। ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती था। स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर इनका नियंत्रण था। वे क्षेत्र के गरीब काश्तकारों पर शक्ति प्रयोग करते थे। ये लोग गाँवों में रहते थे तथा गरीब ग्रामीणों के बड़े वर्ग पर नियन्त्रण रखते थे। बंगाल के दिनाजपुर जिले के धनी किसानों को जोतदार कहा जाता था। 19वीं शताब्दी के शुरू के वर्षों के आते-आते इन जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े भूखंडों को प्राप्त कर लिया था। जमींदार द्वारा लगान बढ़ाने की कोशिश करने पर ये जोतदार उन जमींदारों का घोर विरोध करते थे तथ रैयत जोतदारों के पक्ष में होते थे। जोतदार जमींदारों द्वारा गाँव की लगान को बढ़ाने के लिए किए गए प्रयासों का विरोध करते थे।
जमींदार लोग अपनी जमींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखने थे?
जमींदार लोग अपनी जमींदारियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए कई उपाय करते थे:
- जब कोई नया खरीददार जमींदारी खरीद लेता था, तब पुराने जमींदार के लठियाल मरपीट कर उसे भगा देते थे।
- कभी-कभी स्वयं रैयत नए खरीददार को ज़मीन में नहीं घुसने देते थे।
- फ़र्जी बिक्री के कारण ज़मींदारी को बार-बार बेचना पड़ता था। बार-बार बोली लगाने से सरकार तथा बोली लगाने वाले दोनों ही थक जाते थे। जब कोई भी बोली नहीं लगाता था, तो सरकार को वह जमींदारी पुराने ज़मींदार को ही कम कीमत पर बेचनी पड़ती थी।
- नीलामी की प्रक्रिया में एजेंटों और नौकरों को शामिल किया जाता था। इस प्रकार संपदा पर जमींदार का अधिकार बना रहता था।
- जमींदार कंपनी को राजस्व समय पर नहीं देते थे और इस प्रकार बकाया राजस्व राशि का बोझ बढ़ता गया।
- राजस्व की अत्यधिक माँग और अपनी भूसम्पदा की नीलामी से जमींदार तगं आ गये थे। इससे बचने के लिए जमींदारों ने नया षडयंत्र सोच लिया। संपदा की फ़र्जी बिक्री ऐसी ही एक रणनीति थी।
- बर्दमान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ भाग अपनी माँ के नाम कर दिया क्योंकि कंपनी ने यह नियम बनाया था कि स्त्रीयों की सम्पत्ति को छीना नहीं जायेगा।
- कुछ दिनों के बाद लोगों ने बोली लगाना बंद कर दिया। कंपनी को कम दाम पर जमीन जमींदार को बेचनी पड़ी।
पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शायी?
अठारहवीं शताब्दी में पहाड़ी लोगों को पहाड़िया कहा जाता था। वे राजमहल की पहाड़िया के आस-पास रहते हैं। पहाड़िया लोग बाहर से आने वाले लोगों को संदेह और अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। जब संथाल राजमहल की पहाड़ियों पर बसे तो पहले पहाड़िया लोगों ने इसका प्रतिरोध किया। परंतु धीरे-धीरे उन्हें पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने के लिए मजबूर कर दिया गया। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर आने से रोक दिया गया।
अतः वे ऊपरी पहाड़ियों के चट्टानों एवं अधिक बंजर प्रदेशों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित होकर रह गए। इसका उनके रहन-सहन पर तथा जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा। स्थायी कृषि विस्तार के साथ बाहरी लोगों तथा पहाड़ियों के बीच संघर्ष तेज हो गया था। वे ग्रामवासियों का अनाज और पशु झपटने लगे। पहाड़ियों के लिए एक अन्य खतरा इनके क्षेत्रों में संथालों का प्रवेश बन गया। जहाँ कुदाल पहाड़ियों की रक्षक थीं, वहीं हल संथालों का सुदृढ़ अस्त्र बन गया। अब इन दोनों के बीच संघर्ष शुरू हो गया।
संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह क्यों किया?
संथाल 1780 के दर्शक के आस-पास बंगाल में आने लगे थे। जमींदार लोग खेती के लिए नयी भूमि तैयार करने तथा खेती का विस्तार करने के लिए उन्हें किराये पर रखते थे और ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें जगल महलों में बसने का निमंत्रण दिया। जब ब्रिटिश लोग पहाड़ियों को अपने बस में करके कृषि के लिए एक स्थान पर बसाने में असफ़ल रहे तो उनका ध्यान संथालों की ओर गया। पहाड़िया लोग जंगल काटने के लिए हल को हाथ लगाने को तैयार नहीं थे। संथालों को जमीनें देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया गया। 1832 तक जमीन के एक बड़े इलाके को दामिन-इ-कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया। इसे संथालों की भूमि घोषित कर दिया गया। जब संथाल राजमहल की पहाड़ियों पर बसे तो पहले पहाड़िया लोगों ने इसका प्रतिरोध किया तथा इन पहाड़ियों में अंदर की ओर चले जाने के लिए मजबूर कर दिए गए। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर आने से रोक दिया गया। ऊपरी पहाड़ियों के चट्टानी और अधिक बंजर इलाकों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित कर दिया गया। इससे उनके रहन-सहन तथा जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा तथा आगे चलकर वे गरीब हो गए। झूम खेती नयी से नयी जमीनें खोजने तथा भूमि की प्राकृतिक उर्वरता का उपयोग करने की क्षमता पर निर्भर रहती है। अब सर्वाधिक उर्वर जमीनें उनके लिए दुर्लभ हो गईं क्योंकि वे अब दामिन का हिस्सा बन चुकी थीं। जब इस क्षेत्र के जंगल खेती के लिए साफ़ कर दिए तो पहाड़िया शिकारियों को भी समस्या का सामना करना पड़ा। इसके विपरीत संथाल लोगों ने अपनी पहले वाली खानाबदोश जिंदगी को छोड़ दिया था। संथालों ने बहुत ही जल्दी यह समझ लिया कि उन्होंने जिस भूमि पर खेती करनी शुरू की थी वह उनके हाथों से निकलती जा रही है। 1850 ई. के दशक संथाल लोग स्वायत्त शासन चाहते थे परंतु ब्रिटिश सरकार इसके लिए तैयार नहीं की। परिणामस्वरूप संथालों ने विद्रोह कर दिया। 1855-56 के संथाल विद्रोह के बाद संथाल परगने का निर्माण कर दिया गया। इस प्रकार उनका क्षेत्र सीमित कर दिया गया।
दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?
ऋणदाता किसानों को कई प्रकार से ठगते थे। 1870 ई. में दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति बहुत क्रुद्ध थे। ऋणदाता देहात के प्रथागत मानकों अर्थात् रूढ़ि रिवाजों का भी उल्लंघन कर रहे थे। जैसे कि ब्याज मूलधन से अधिक नहीं लिया जा सकता था फि़र भी ऋणदाता इन मानकों को नहीं मानते थे। ऋणदाता 100 रू के मूलधन पर 2000 रू से अधिक ब्याज लगा रखा था। यदि ऋणदाता, ऋण देने से इंकार कर देते थे तो रैयत समुदाय बहुत क्रोधित हुआ। किसानों को यह लगता था कि ऋणदाता इतना संवेदनशील हो गए हैं जो उनकी हालत पर तरस नहीं खाता। ऋण का भुगतान किए जाने के समय वे रैयत को उसकी रसीद नहीं देते थे। जब भारत से इंग्लैण्ड में कपास का निर्यात हो रहा था। महाराष्ट्र के निर्यात व्यापारी और साहूकार को बहुत ऋण दे रहे थे। अमेरिका में गृहयुद्ध समाप्त होने से और इंग्लैण्ड में कपास का निर्यात पुनः होने से ऋणदाता ऋण देने में उत्सुक नहीं रहे। इसलिए दक्कन के रैयत क्रुद्ध हो गए।
इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी जमींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गई?
लार्ड कार्निवालिस द्वारा 22 मार्च 1793 ई. में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू की गई थी। भूराजस्व की इस नई पद्धति को स्थायी बंदोबस्त तथा जमींदारी प्रथा या इस्तमरारी बंदोबस्त भी कहा जाता था। स्थयी बंदोबस्त अथवा इस्तमरारी बंदोबस्त ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के जमींदारों के बीच कर वसूलने से संबंधित एक स्थायी व्यवस्था हेतु सहमति समझौता था। इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों को एक निश्चित राशि पर भूमि दे दी गई। जमींदारों को यह निश्चित राशि एक निश्चित समय को सूर्यास्त के पहले चुका देनी पड़ती थी नही तो उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी। नीलामी के समय अधिक भूमि शहर के धनी वर्ग के लोगों ने ले लिया जिन्हें कृषि का कोई अनुभव ही नहीं था। यह लोग किसानों से बहुत अधिक राजत्व लेते थे। इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दो यह था कि किसान पूर्ण रूप से जमींदारों की दया पर आश्रित हो गया। किसानों का ज़मीन पर से सभी मालिकाना हक छीन लिया गया। इसके बुरे परिणाम यह हुआ कि इससे कृषि उपज कम हो गई। राजस्व वसूली के समय जमींदार का अधिकारी जिसे सामान्य रूप से अमला कहा जाता था वह ग्राम में जाता था। जमींदारों को खेती करने वाले किसानों से कर वसूलने का अधिकार था। लेकिन बहुत से जमींदार रैयतों से समय पर कर वसूल कर पाने के कारण पूरी राजस्व राशि नहीं चुका पाते थे। कुछ जमींदार जान-बूझकर भी राजस्व नहीं देते थे। इसलिए, उन पर बकाया राशि लगातार बढ़ती रही। कंपनी को लंबे समय तक यह सहन नहीं हुआ तथा राजस्व घाटे को पूरा करने के लिए अधिकतर ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी गई।
पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस रूप में भिन्न थी?
पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से निम्न प्रकार से भिन्न थी:
- पहाड़िया लोग गुजारे वाली तथा खाद्य पदार्थों की खेती ज्यादा करते थे। इसके विपरीत संथाल लोग व्यापारिक तथा नकदी फ़सलों की खेती करते थे।
- पहाड़िया लोग जंगल साफ़ करने और खेती करने के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे। वे जंगल काटने के लिए हल का प्रयोग नहीं करते थे तथा उपद्रवी थे। जबकि संथाल आदर्श बाशिंदे थे, क्योंकि उन्हें जंगलों का सफ़ाया करने में कोई हिचक नहीं थी और वे भूमि की गहरी जुताई करते थे।
- अठारहवीं शताब्दी के परवर्ती दशकों के राजस्व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि पहाड़िया जंगल की उपज से अपनी जीविका चलाते थे तथा झूमकर खेती किया करते थे। जंगल को साफ़ करके बनाई गई जमीन पर लोग खाने विभिन्न प्रकार की दालें तथा ज्वार-बाजरा उगा लेते थे। संथाल लोग स्थायी खेती करते थे। वे परिश्रम से जंगल को साफ़ करके खेतों की जुताई करते थे। इनकी जमीन चट्टानी थी लेकिन उपजाऊ थी। बुकानन के अनुसार वहाँ तम्बाकू और सरसों की अच्छी खेती होती थी।
अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया?
अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू होने से कपास की कीमतों में वृद्धि हुई, जिससे कारण कपास की माँग भारत में भी बढ़ गई। कपास में तेजी आने से मुंबई के व्यापारियों द्वारा ज्यादा लाभ कमाने के लिए तथा कपास की खेती के लिए रैयतों को बढ़ावा दिया जाने लगा, इससे किसानों को भारी मात्र में ऋण मिलने लगा। इन ऋणों में ज्यादातर ऋण दीर्घकालीन था। ऋणों के मिलने से रैयतों की खेती के सामान जैसे- हल, बीज, बैल इत्यादि खरीदने में आसानी हो गई। सामानों का अधिक मात्र में उत्पादन होने लगा। इसका लाभ किसानों के साथ-साथ सभी व्यापारियों को भी प्राप्त हुआ। ब्रिटेन के सूती वस्त्र निर्माता अमेरिकी कपास पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए काफ़ी समय से कपास आपूर्ति के वैकल्पिक स्त्रोत की खोज कर रहे थे।
भारत की भूमि तथा जलवायु दोनों ही कपास की खेती हेतु उपयुक्त थी। 1861 ई. में अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हो जाने की वजह से ब्रिटेन ने भारत को अधिकाधिक कपास निर्यात का संदेश भेजा। जब बाजार में तेजी आती है तो ऋण सरलता से मिल जाता है, क्योंकि ऋणदाता अपनी उधार दी गई राशियों की वसूली के बारे में ज्यादा आश्वस्त रहता है। दक्कप के गाँवों के रैयतों को अचानक असीमित ऋण उपलब्ध होने लगा। साहूकार भी लंबे समय तक ऋण देने के लिए एकदम तैयार हो गए। जब तक अमेरिका में संकट की स्थिति बनी रही तब तक बंबई दक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया।