एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग पुस्तक भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 1 के सवाल जवाब सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। कक्षा 12 इतिहास पाठ 3 के सभी प्रश्नों के उत्तर विस्तार से चरण दर चरण समझाए गए हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 इतिहास अध्याय 3
कक्षा 12 इतिहास अध्याय 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग के प्रश्नों के उत्तर
स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्वपूर्ण रही होगी?
पितृवंशिकता का आशय उस वंश परंपरा से है जो पिता के पुत्र फि़र पौत्र, प्रपौत्र आदि से आगे बढ़ती है। अधिकतर राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। विशिष्ट परिवारों में शासक परिवार तथा धनी लोगों के परिवार शामिल थे। विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता महत्वपूर्ण रही जिसके कारण निम्नलिखित हैं:
- धर्मग्रंथों के अनुसार वंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र का होना आवश्यक है। इसी कारण सभी परिवारों में उत्तम पुत्रों की कामना की जाती थी।
- ऋग्वेद के एक मंत्र में यह वर्णित है कि पुत्री के विवाह के समय पिता कामना करता है कि इंद्र के अनुग्रह से उसकी पुत्री को उत्तम पुत्रों की प्राप्ति हो।
- विशिष्ट परिवारों में उत्तराधिकार संबंधी झगड़ों से बचने के लिए भी पितृवंशिकता महत्वपूर्ण रही होगी। पितृवंशिकता के अनुसार पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र उसके संसाधनों पर अधिकार जमा सकते थे। कभी-कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे भाई का उत्तराधिकारी बन जाता था।
क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे?
आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही नहीं होते थे। आरंभिक राज्यों में शासक अन्य वर्गों से भी संबंधित होते थे। शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे। परंतु अनेक महत्वपूर्ण राजवंजों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। मौर्यवंश ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की परंतु उनकी उत्पत्ति के विषय में विवाद है। बौद्ध ग्रंथ उन्हें क्षत्रिय बताते हैं परंतु ब्राह्मणीय ग्रंथ उन्हें निम्न कुल का मानते हैं। मौर्यों के उत्तराधिकारी शुंग और कण्व ब्राह्मण थे। गुप्त राजवंज को लेकर भी मतभेद थे। मध्य एशिया से आने वाले शकों को म्लेच्छ, बर्बर अथवा अन्य देशीय कहा गया है। सातवाहन कुल का सबंध भी ब्राह्मणों से था। अतः यह बात स्पष्ट है कि कई राजवंजों का उल्लेख क्षत्रिय वर्ग से नहीं था। प्रसिद्ध सातवाहन शासक गौतमी पुत्र शातकर्णी ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण बताने के साथ-साथ अपने आप को क्षत्रियों के अभिमान का हनन करने वाला भी बताया था। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि आरंभिक राज्यों में शासक के लिए जन्म से क्षत्रिय होना अनिवार्य नहीं था।
द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए व उनके अंतर को स्पष्ट कीजिए।
द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना इस प्रकार है:
- द्रोण की कथाओं में धर्म के मानदडं – निषाद वर्ग के एकलव्य ने द्रोण को अपना गुरू बनाना चाहते थे परंतु गुरू द्रोण ने इंकार कर दिया। गुरू द्रोण क्षत्रिय राजकुमारों को युद्ध विद्या सिखाते थे। गुरू द्रोण ने एकलव्य को अपना शिष्य मानने से मना कर दिया परंतु एकलव्य से गुरूदक्षिणा में उसके दाएँ हाथ का अंगूठा माँग लेना धर्म के विपरीत था। गुरू द्रोण ने अपने शिष्य अर्जुन के सामने यह प्रण किया कि वह उसे विश्व के अद्वितीय तीरंदाज बनाएंगे। इसी कारण द्रोण ने एकलव्य से गुरूदक्षिणा में उसके दांए हाथ का अंगूठा माँग लिया। हालांकि गुरू को ऐसा नहीं करना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि द्रोण एक ब्राह्मण थे। उनका काम शिक्षा देना था और वर्ण-व्यवस्था के अनुसार सैनिक दायित्व का निर्वाह क्षत्रिय ही करते थे। दूसरी ओर निषादों को यह संदेश दिया जा रहा था कि वे कभी भी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार उच्च वर्गों की बराबरी नहीं कर सकते।
- हिडिम्बा की कथाओं में धर्म के मानदंड – जब पांडव वन चले गए थे तो वे जिस समय थककर सो रहे थे द्वितीय पांडव भीम उनकी रखवाली कर रहे थे। हिडिम्बा एक राक्षसिनी थी और एक नरभक्षी राक्षस की बहन थी। हिडिम्बा के भाई ने उसे उन पांडवों को पकड़कर लाने को कहा। हिडिम्बा भीम को देखकर मोहित हो गई तथा एक सुंदर स्त्री की वेशभूषा में भीम के सामने गई और विवाह का प्रस्ताव रखा परंतु उन्होंने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। बाद में उसने भीम से विवाह कर लिया। तत्पश्चात हिडिम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया। यह कार्य धर्म के मानदंडों के प्रतिकूल था।
- मातंग की कथाओं में धर्म के मानदडं – मातंग बोधिसत्व का नाम था। उन्होंने चांडाल के रूप में जन्म लिया था। चांडाल भी अपने आप को समाज का महत्वपूर्ण अंग मानते थे। इसकी पुष्टि मातगं की कथा से होती है। उनका विवाह व्यापारी की पुत्री दिथ्य मांगलिक नामक कन्या से हुआ और मांडव्य नामक पुत्र का जन्म हुआ। एक बार भिखारी के रूप में मातंग ने मांडव्य से उसके दरवाजे पर भोजन माँगा लेकिन उसने उसकी उपेक्षा की।
किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो ‘पुरूषसूक्त’ पर आधारित था।
बौद्धों ने समाज में फ़ैली विषमताओं के संदर्भ में एक अलग अवधारणा प्रस्तुत की। साथ ही समाज में फ़ैले अंतर्विरोध को नियमित करने के लिए जिन संस्थाओं की आवश्यकता थी, उस पर भी अपना दृष्टिकोण सामने रखा। सुत्तपिटक नामक ग्रंथ के अनुसार यद्यपि मनुष्य और वनस्पति अविकसित थी परंतु सर्वत्र शांति का माहौल था। सभी जीव शांति के एक निर्बाध लोक में रहते थे और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते थे जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती है। इन्होंने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को भी अस्वीकार कर दिया।
ऋग्वेद के पुरूषसूक्त के अनुसार समाज में चार वर्षों की उत्पत्ति आदि मानव ‘पुरुष’ की बलि से हुई थी। ये वर्ण थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, क्षुद्र तथा वैज्य। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। क्षत्रिय योद्धा थे। शुद्रों का कार्य अन्य तीन वर्गों की सेवा करते थे। वैश्य व्यापार करते थे। इस व्यवस्था में सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार जन्म था।
क्या यह संभव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था?
हिंदू मान्यताओं तथा पौराणिक संदर्भों के अनुसार महाभारत के रचनाकार वेदव्यास को माना जाता है। महाभारत के रचनाकार के विषय में भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। जनश्रुतियों के अनुसार महर्षि व्यास ने इस ग्रंथ को श्रीगणेश जी से लिखवाया था। किंतु आधुनिक विद्वानों का विचार है कि इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं हुई। इतिहासकार मानते हैं कि इसकी मूल गाथा के रचयिता भाट सारथी थे। धर्म, दर्शन और उपदेश आदि अंश मूल कथा के साथ जुड़कर महाभारत एक बृहद् ग्रंथ बनता गया। लगभग 200 ई.पू. से 200 ई. के बीच हम इस ग्रंथ के रचनाकाल का एक और स्तर देखते हैं। हालाँकि साहित्यिक परंपरा में इस वृहद रचना के रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं।
उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
बंधुत्व संबंधी ब्राह्मणीय नियम
बहुधा अपने पारिवारिक जीवन को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं, पर परिवार में एक-दूसरे के साथ रिश्तों और क्रियाकलापों में भी भिन्नता है। कुल शब्द परिवार के लिए तथा जाति शब्द किसी बड़े समूह के लिए प्रयोग किया गया। कई बार एक ही परिवार के लोग भोजन आपस में मिल-बाँटकर इस्तेमाल करते हैं। एकसाथ रहते थे और काम करते थे। पारिवारिक रिश्ते नैसर्गिक और रक्त संबद्ध माने जाते हैं। इतिहासकार परिवार और बंधुता संबंधी विचारों में बदलाव आया होगा। महाभारत काल में राज्य परिवारों में बंधुत्व संबंधों में भारी परिवर्तन आया। एक स्तर पर महाभारत इसी की कहानी है। पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के बाद उनके संसाधनों पर अधिकार जमा सकते थे। कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे पर उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव सिंहासन पर अपना अधिकार जमाते थे।
विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियम
अपने गोत्र से बाहर स्त्रीयों का विवाह कर देना वांछित था। इस प्रथा को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं और इसका अर्थ था कि ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था जिससे उचित समय और ‘उचित’ व्यक्ति से उनका विवाह किया जा सके। इसका प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया। धर्मशास्त्र तथा धर्मसूत्र में विवाह के आठ प्रकार मान्य हैं:
- ब्रह्म विवाह – वेद जानने वाले शीलवान वर को आमंत्रित कर उपहार आदि के साथ कन्या का विवाह करना।
- देव विवाह – सफ़लतापूर्वक पूर्ण अनुष्ठानिक यज्ञ पूर्ण करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह करना।
- आर्श विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करने के साथ एक जोड़ी बैल प्रदान करता है।
- प्रजापत्य विवाह – इस विवाह के अंतर्गत कन्या के पिता वर को कन्या प्रदान करते समय आदेश देता है कि दोनों साथ-साथ मिलकर सामाजिक कार्यों का पालन करें।
- गन्धर्व विवाह – यह प्रेम विवाह होता था।
- असुर विवाह – कन्या का पिता धन लेकर कन्या प्रदान करता है।
- राक्षस विवाह – बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर उससे विवाह करना।
- पिशाच विवाह – यह सबसे निम्न विवाह माना गया है।