एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत पाठ 10 अन्योक्तय:
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत अध्याय 10 – दशम: पाठ: अन्योक्तय: शेमुषी भाग 2 के प्रश्न उत्तर और अभ्यास के अन्य प्रश्नों के हल सीबीएसई सत्र 2025-26 के लिए यहाँ दिए गए हैं। यदि किसी की प्रशंशा या निंदा, किसी दूसरे से करते हैं तो उसका फल क्या मिलता है। कक्षा 10 संस्कृत पाठ 10 में यही समझाने का प्रयत्न किया गया है। यहाँ पूरे पाठ का हिंदी में अनुवाद भी दिया गया है ताकि पाठ का सारांश आसानी से समझ आ सके।
कक्षा 10 संस्कृत अध्याय 10 के लिए एनसीईआरटी समाधान
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 10 संस्कृत दशम: पाठ: अन्योक्तय:
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् । | एक राजहंस से जो शोभा तालाब (नदी) की होती है। |
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना ॥1॥ | वह शोभा किनारों पर चारों ओर रहने वाले हजारों बगुलों से नहीं होती है अर्थात् एक विद्वान से संसार अथवा समाज का कल्याण (शोभा) होता है परन्तु उसी समाज में रहने वाले हजारों मूर्खों से उसकी शोभा नहीं होती है। |
भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता- | जहाँ आपने कमलनाल के समूह को खाया है, जल को अच्छी तरह से पीया है, |
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि । | कमल के फूलों को सेवन किया हैं। |
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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रे राजहंस! वद तस्य सरोवरस्य, | हे राजहंस! बोलो, उस तालाब (सरोवर) का |
कृत्येन के न भवितासि कृतोपकार: ॥ 2॥ | किस काम से किया गया उपकार चुकाओगे? अर्थात् जिस देश, जाति, धर्म और संस्कृति से हे मानव! तुम्हारा यह जीवन बना (निर्मित) हुआ है उसका बदला किस कार्य से चुका सकोगे? अतः इन सभी के ऋणी रहो और सम्मान करो। |
तोयैरल्पैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे, | हे माली! सूर्य के तेज चमकने (तपने) पर गर्मी के समय में |
मालाकार! व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टि: । | माली ने थोड़े जल से भी आपने दया के इस पेड़ की जो पुष्टि (बढ़ोतरी) की है। |
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां, | जलों को वर्षा काल के चारों ओर से धाराओं के |
सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां, | प्रवाहों को भी बिखरते हुए (बरसाते हुए) |
धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन ॥3॥ | बादल से इस संसार में वह (पेड़ की) पुष्टि क्या की जा सकती है? |
अर्थात् उत्तम और सम्पुष्ट जीवन जीने के लिए सुख अर्थात् सुखयुक्त वस्तुओं की अधिकता भी मानव जीवन को पूर्णतया सक्षम नहीं बनाती है। उसके लिए सुख अथवा दुःख भरे क्षणों की भी आवश्यकता होती है क्योंकि सुख और दुःख दोनों मानव जीवन के ही कंधे हैं और दोनों ही आवश्यक हैं।
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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आपेदिरेऽम्बरपथं परित: पतग:, | पक्षियों ने चारों ओर से आकाशमार्ग को प्राप्त कर लिए हैं। |
भृग रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते । | भौरे आम की मंजरियों को आश्रय बना लिए हैं। |
सटोचमञ्चति सरस्त्वयि दीनदीनो, | सरोवर तुम्हारे संकुचित होने (सूखने) पर अरे निराश्रित (अनाथ) |
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु ॥ 4॥ | मछली निश्चय से किस गति को प्राप्त करेगी (करे)। |
अर्थात् अपने एकमात्र सहारे रूप मित्र के बुरे दिन आने पर भी मछली उसका साथ पक्षियों और भौंरों की तरह नहीं छोड़ती है, वह उसी के साथ अपने प्राण भी दे देती है। अतः वही वास्तव में मित्र मानी जाती है।
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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एक एव खगो मानी वने वसति चातक: । | एक ही स्वाभिमानी पक्षी चातक (चकोर) वन में रहता है |
पिपासितो वा म्रियते याचते वा पुरन्दरम् ॥5॥ | जो या तो प्यासा ही मर जाता है या फिर इन्द्र से (अपने लिए) वर्षा जल की याचना करता है। |
अर्थात् चकोर पक्षी की तरह संसार में स्वाभिमानी व्यक्ति भी अपने सम्मान व निर्धारित मर्यादा के साथ जीते हैं। नियमों से विरुद्ध अथवा अमर्यादित जीवन जीने की अपेक्षा वे मरना अधिक पसन्द करते हैं।
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त- | सूर्य की गर्मी से तपे हुए पर्वतों के समूह को तृप्त करके |
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि । | और ऊँचे वृक्षों (लकडियों) से रहित वनों को (तृप्त करके) |
नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा, | अनेक नदियों और सैकड़ों नदों (नालों) को जल से पूर्ण (भर) करके भी |
रिक्तोऽसि यज्जलद! सैव तवोत्तमा श्री: ॥6॥ | हे बादल! यदि तुम खाली हो तो तुम्हारी वही उत्तम शोभा है |
संस्कृत वाक्य | हिन्दी अनुवाद |
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रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयता- | हे मित्र चातक पक्षी! सावधान मन से क्षणभर (तनिक) सुनो। |
मम्भोदा बहवो भवन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशा: । | आकाश में निश्चय से बहुत से बादल हैं परन्तु सभी ऐसे (एक जैसे) नहीं हैं। |
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा, | उनमें से कुछ धरती को बारिशों से भिगो देते हैं और कुछ बेकार में गरजते (ही) हैं, |
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वच: ॥7॥ | तुम जिस-जिस को (सम्पन्न) देखते हो उस-उस के आगे अपने दुःख भरे वचनों को मत बोलो। |
अर्थात् सभी के आगे अपने दुःख को प्रकट करके हाथ फैलाना उचित नहीं होता। इससे अपना अपमान होता है और सभी उदार भी नहीं होते हैं। अतः सभी के आगे रोना और माँगना उचित नहीं है।