एनसीईआरटी समाधान कक्षा 5 ईवीएस अध्याय 13 बसेरा ऊँचाई पर
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 5 ईवीएस अध्याय 13 बसेरा ऊँचाई पर पर्यावरण अध्ययन एक सभी प्रश्नों के हल सवाल जवाब सत्र 2024-25 के लिए संशोधित रूप में यहाँ दिए गए हैं। कक्षा 5 पर्यावरण पाठ 13 के समाधान सीबीएसई के साथ साथ राजकीय बोर्ड के विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी हैं।
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 5 ईवीएस अध्याय 13
कक्षा 5 ईवीएस अध्याय 13 बसेरा ऊँचाई पर एक प्रश्नों के उत्तर
गौरव जानी की मोटरसाईकिल यात्रा
प्रस्तुत पाठ में गौरव जानी द्वारा अपनी मोटरसाईकिल लोनर पर दो महीनें की अद्भुद यात्रा के बारे में बताया गया है। गौरव ने अपनी कहानी में बताया कि वह मुंबई की भीड़-भाड़, शोरगुल वाली गलियों और ऊँची-ऊँची इमारतों से निकलने का मौका ढूँढ़ते रहता था। उसे अपने सुंदर देश के अलग-अलग इलाकों में घूमने का बहुत शोक है।
उसने दो महीने की यात्रा के लिए सोच-समझ कर ज़रूरत का सामान इकट्ठा किया, उसमें रहने के लिए टेंट, बिछाने के लिए प्लास्टिक की शीट, स्लीपिंग बैग, गर्म कपड़े, काफ़ी दिनों तक चलने वाला खाना, कैमरा, पेट्रोल रखने के डिब्बे आदि अपनी बाइक “लोनर” पर लादकर चल पड़ा था। उसने अपनी यात्रा मुंबई से शुरू करते हुए महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान, के छोटे-बड़े शहरों से होता हुआ दिल्ली पहुँचा था।
यात्रा के पड़ाव
उसने 1400 किलोमीटर के इस सफ़र को तीन दिन में तय किया। उसे उम्मीद थी कि दिल्ली में कुछ नया देखने को मिलेगा। पर दिल्ली भी उसे मुंबई जैसी लगी। इतने सालों से एक ही तरह के शहर को देख वह थक चूका था। वह अपनी कल्पना के अनुसार लकड़ी के घर, ढलवाँ छत वाले और बर्फ़ से ढँके हुए घर देखना चाहता था, जैसे उसने किताबों में देखे थे। दिल्ली में फिर सामान भरवाकर वह दो दिन में पहाड़ों की ताज़ा हवा खाने मनाली पहुँचा और वहाँ चैन की साँस ली। उसकी असली यात्रा तो अब शुरू होनी थी। उसे जम्मू-कश्मीर राज्य के कई मुश्किल रास्तों से होते हुए लद्दाख में लेह तक जाना था। गौरव का कहना था की उसे यात्रा के दौरान सिर्फ़ भर पेट खाना चाहिए था और रात की ठंड से बचने के लिए टेंट की जरूरत थी। सुबह की ठंडी हवा और चिड़ियों की चहक से ही रोज़ उसकी ऑंखें खुलती थी।
मनाली से लेह
आखिरकार कुछ दिनों के बाद गौरव और उसकी बाइक लोनर लेह पहुँच ही गए। लेह शहर एक अजब अनूठा इलाका है, यह इलाका सूखा, समतल और ठंडा रेगिस्तानी था। लद्दाख में बुत ही कम बारिश होती है। यहाँ दूर-दूर तक बर्फ़ से ढँके पहाड़ और सूखा ठंडा मैदान हैं। गौरव ने सबसे पहले लेह शहर की शांत गली में सफ़ेद पत्थर के सुंदर और मज़बूत घरों को देखा।
वह थोड़ा आगे बड़ा तो कुछ बच्चे जुले-जुले यानी स्वागत, स्वागत चिल्लाते हुए उसका पीछा करने लगे। वे सब ‘लोनर’ को देखकर बहुत हैरान थे। सभी गौरव को अपने साथ ले जाना चाहते थे। तब गौरव, ताशी के ज़ोर देने पर उसके घर गया। उसका घर दो मज़िला बना हुआ था, उसका घर पत्थर को काट कर एक के ऊपर एक रखकर बना था। उस पर मिट्टी और चूने से पुताई की हुई थी। अंदर से घर छप्पर जैसा लग रहा था। हर तरफ़ घास-फूस पड़ी हुई थी।
ताशी का घर
ताशी सबसे पहले गौरव को लकड़ी की सीढ़ियों से पहली मंज़िल पर ले गया उसने बताया कि वह और उसका परिवार ऊपर की मंज़िल पर रहते है। नीचे की मंज़िल पर पालतू जानवरों के रहने की व्यवस्था है। सर्दियों के दिनों में अक्सर उसका पूरा परिवार भी नीचे की मंज़िल में रहने को आ जाता है। नीचे की मंज़िल में कोई खिड़की भी नहीं थी। छत को मज़बूत बनाने के लिए पेड़ों के मोटे तने का इस्तेमाल किया गया था। इसके बाद ताशी उसे घर की छत पर ले गया छत से आसपास का नज़ारा देखते ही बनता था।
सभी घरों की छतें समतल थीं। छतों पर सूखने के लिए अलग-अलग फल, सब्जियां, धान, मक्का, सीताफल और लाल-मिर्च फैला रखी थी। ताशी ने बताया कि छत घर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ गर्मियों की तेज़ धूप में ही बहुत सारी सब्जियां सुखा ली जाती हैं। ताकी इन्हें ठंड के दिनों में इस्तेमाल किया जा सके। तब ये सब्जियाँ मिल नहीं पाती हैं। गौरव को यह बात समझने में बिलकुल देरी नहीं लगी कि किस तरह उनके घर का हर हिस्सा एक खास सोच से बनाया गया है। मोटी-मोटी दीवारें, लकड़ी के फ़र्श और लकड़ी की छत ही उन्हें ठंड से बचाते होंगें।
दुनिया की चोटी पर लोगों का बसेरा
गौरव को वहाँ से आगे बढ़ने पर टेढ़े-मेढ़े सँकरे,पहाड़ी रास्तों से होते हुए बहुत ऊँचाई पर जाना था। सड़क पर कहीं-कहीं बड़े-बड़े पत्थर पड़े थे, ‘लोनर’ बाइक का चलना मुश्किलों भरा हो गया था। गौरव चांगथांग इलाके के और बाद रहा था, लगभग 5000 मीटर की ऊँचाई पर बना यह मैदानी इलाका बिलकुल सुनसान और पथरीला था। यह इतनी ऊँचाई पर था, कि साँस लेना भी मुश्किल होने लगी थी। उसके सिर में दर्द होने लगा और कमज़ोरी भी महसूस होने लगी।
फिर धीरे-धीरे ऐसी हवा में साँस लेने की आदत पड़ जाती है। गौरव कई दिनों तक लोनर पर घूमता रहा पर दूर-दूर तक उसे कोई दिखाई नहीं दिया। सिर्फ़ दूर-दूर तक फैला नीला आसमान और पहाड़ों के बीच बहुत से तालाब थे। फिर भी वह आगे बढ़ता रहा, कई रातें और कई दिन बीत जाने के बाद एक दिन अचानक उसके सामने एक हरा मैदान और उसमें चरती भेड़-बकरियाँ दिखाई दी। थोड़ी ही दूरी पर मुझे कुछ टेंट दिखाई दिए। गौरव हैरान था कि इस सुनसान इलाके में ये कौन लोग थे और क्या कर रहे थे।
चांगपा जाति के लोग
वहाँ गौरव की मुलाकात नामग्याल से हुई तब गौरव को चांगपा जाति के बारे में पता चला। इतने बड़े इलाके में सिर्फ़ 5000 लोग चांगपा घुमंतू जाति के रहने वाले हैं, जो हमेशा एक ही जगह पर नहीं रहते। वे अपनी भेड़-बकरियों के झुंड को लेकर पहाड़ों में हरे मैदानों की खोज में घूमते ही रहते हैं। इन्हीं जानवरों से इन्हें अपनी ज़रूरत का सामान मिल जाता है। जैसे: दूध, माँस, टेंट के लिए चमड़ा, स्वेटर और कोट के लिए ऊन आदि। भेड़-बकरियाँ ही इनकी सबसे बड़ी पूँजी है।
जितनी भेड़-बकरियाँ, उतना ही ऊँचा परिवार का स्तर होता है। चांगपा जाति के लोग खास तरह की बकरियाँ पालते हैं, जिनके बालों से दुनिया की मशहूर पशमीना ऊन बनती है। इन बकरियों को जितनी ठंडी और ऊँची जगह मिलती है, इन बकरियों के बाल भी उतने ही ज़्यादा नरम होते हैं। इसलिए चांगपा जाति के लोग इतने मुश्किल हालात में भी इतनी ऊँचाई पर रहना पसंद करते हैं। यही है इनकी ज़िंदगी।
नामग्याल से भेंट होना
गौरव तो थोड़ा ही सामान अपनी मोटरसाईकिल पर लाया था, लेकिन ये लोग अपना पूरा घर और सामान घोड़ों और याक पर लादकर घूमते हैं। इनकी सबसे बड़ी बात तो यह है कि, जब आगे बढ़ना हो तो ये सिर्फ़ ढाई घंटे में अपना डेरा समेटकर निकल पड़ते हैं। जहाँ ठहरना हो वहाँ कुछ ही देर में ये अपने टेंट गाड़ लेते हैं और इनका घर तैयार हो जाता है।
नामग्याल “आपका स्वागत है” कहते हुए गौरव को अपने बड़े तिकोने टेंट में ले गया ये लोग अपने टेंट को ‘रेबो’ कहते हैं। टेंट में घुसने पर गौरव ने महसूस किया उनका ‘रेबो’ गौरव के टेंट से काफ़ी बड़ा था। ऊँचा भी इतना कि वह आराम से सीधा खड़ा हो गया था। ‘रेबो’ दो लकड़ी के सहारे खड़ा था। ‘रेबो’ के बीचोंबीच एक खुला छेद था, जहाँ से चूल्हे का धुँआ बाहर जा सके। नामग्याल ने बताया की उसके टेंट का डिज़ाइन एक हज़ार साल पुराना है। और कैसी भी ठंड हो ये हमेशा उन्हें बचाता है। ‘रेबो’ के पास ही भेड़-बकरियों को रखने के लिए जगह बनी थी। इसे चांगपा ‘लेखा’ कहते हैं। “लेखा” की दीवारें पत्थरों और चट्ठानों को एक-दुसरे पर रखकर बनाते हैं। हर परिवार अपने जानवरों के झुंड पर पहचान के लिए खास निशान बनाता है। रोज़ सुबह झुंड को ‘लेखा’ से बाहर निकालकर उन्हें गिनकर चराने ले जाते हैं। ये काम औरतें या जवान लड़कियाँ करती हैं।
लेह से श्रीनगर वापसी का सफ़र
कुछ दिन इन लोगों के साथ बिताने के बाद गौरव को तो आगे बढ़ना ही था। लेह से वापसी की यात्रा गौरव को इस अनोखे इलाके से दूर एक दूसरी ही दुनिया में ले जाने वाली थी। उसने लेह से वापिस आते समय श्रीनगर का रास्ता पकड़ा। गौरव कारगिल से होता हुआ श्रीनगर पहुँचा। रास्ते में उसने कई तरह के घर और अद्भुत इमारतें देखीं। कुछ दिन श्रीनगर में रहने पर उसे वहाँ के अलग-अलग घरों को देखकर बहुत हैरानी हुई। उन घरों ने गौरव का दिल जीत लिया था। यह घर कोई तो पहाड़ पर था, तो कोई पानी पर यहाँ लोग तरह-तरह के घरों में रहते हैं। गौरव ने उन घरों की कई फ़ोटो खींची थी। अपने सफ़र से पहले उसने कभी भी यह नहीं सोचा था कि, एक ही राज्य में कई तरह के घर और लोगों के रहन-सहन के तरीकें देखने को मिलेंगें। लेह में उसे चोटी पर रहने का अनुभव मिला तो श्रीनगर में उसे पानी में रहना का अनुभव मिला था। इन इलाकों के घर भी वहाँ के मौसम के अनुकूल बनाए हुए थे।
जम्मू के रास्ते मुंबई वापसी का सफ़र
गौरव का फिर आगे बढ़ने का समय आ गया था, इस बार उसे जम्मू शहर से होते हुए जाना था। अब फिर उसे बड़े शहरों वाले सीमेंट, ईट, और काँच के घर दिखने लगे थे। उसे हमेशा ऐसा लगता है, कि ये घर मज़बूत और टिकाऊ तो ज़रूर है पर इनमें उन घरों जैसी खासियत नहीं है। जो घर खुशकिस्मती से लेह और श्रीनगर में उसने देखे थे। फ़िर से उतना ही लम्बा सफ़र तय करके गौरव और उसकी बाइक लोनर मुंबई की भीड़-भाड़ वाली सड़क पर पहुँचने वाले थे, पर दोनों का मन वापिस आना नहीं चाहता था। गौरव जानी को इस बात की ख़ुशी थी कि, वह कुछ अनोखा और नया अपनी यादों और अपने कैमरे में कैद कर लाया था। उसने सोचा कि यह अंत नहीं है, जब भी वह अपने शहर से बोर होगा तो वह फ़िर से अपनी बाइक “लोनर” को लेकर एक नए सफ़र पर निकल पड़ेगा।