एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 राजनीति विज्ञान भाग 2 पाठ 7 जन आंदोलनों का उदय

एनसीईआरटी समाधान कक्षा 12 राजनीति विज्ञान अध्याय 7 जन आंदोलनों का उदय भाग 2 पाठ 7 के सभी प्रश्नों के उत्तर छात्र यहाँ से निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं। 12वीं कक्षा राजनीति विज्ञान के प्रश्नों को सीबीएसई सत्र 2024-25 के अनुसार संशोधित किया गया है। प्रश्नों के उत्तर तथा पठन सामग्री पीडीएफ में दी गई हैं और पाठ का अध्ययन विडियो के रूप में विस्तार से बताया गया है।

कक्षा 12 राजनीति विज्ञान भाग 2 पाठ 7 एनसीईआरटी समाधान

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चिपको आंदोलन के बारे में निम्नलिखित में से कौन-कौन से कथन गलत है:

(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आंदोलन था।
(ख) इस आंदोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।
(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आंदोलन था।
(घ) इस आंदोलनों की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होना चाहिए।

उत्तर:

(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आंदोलन था।

नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरूरी सुधार के साथ उन्हें सही करके दोबारा लिखें:

(क) सामाजिक आंदोलन भारत के लोकतंत्र को हानि पहुँचा रहे हैं।
(ख) सामाजिक आंदोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।
(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ।

उत्तर:

(क) सामाजिक आंदोलन भारत के लोकतंत्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ख) यह कथन सही है।
(ग) भारत में सामाजिक आंदोलनों का उदय बहुत अधिक सामाजिक संघर्ष को कम करने के लिए हुआ।

उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में (अब उत्तराखंड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आंदोलन का जन्म हुआ? इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा?

यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में सन् 1973 में प्रांरभ हुआ। यह घटना 1973 में घटी जब मौजूदा उत्तराखंड के एक गाँव के स्त्री-पुरूष एकजुट हुए और जंगलों की व्यावसायिक कटाई का विरोध किया। इन लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँहों में घेर लिया ताकि उन्हें काटने से बचाया जा सके। सुंदरलाल बहुगुणा का नाम इस आंदोलन में प्रमुख रूप से जुड़ा हुआ है।

चिपको आंदोलन के प्रभाव:
• चिपको आंदोलन 1973 में दो-तीन गाँवों से प्रारंभ होकर पूरे राज्य में फैल गया। सरकार ने अगले 15 वर्षों के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया।
• इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण थी। इस आंदोलन ने विशेषकर महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत की।
• इस क्षेत्र में शराब बंद करने के बारे में भी जन चेतना जाग्रत हुई।
• भारत में 1980 का वन संरक्षण अधिनियम और केंद्र सरकार में पर्यावरण मंत्रालय का गठन दोनों ही चिपको आंदोलन के परिणाम थे।
• इस आंदोलन की सफलता ने भारत में चलाए गए अन्य आंदोलनों को भी प्रभावित किया।

भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?

सत्तर के दशक से भारतीय समाज में कई तरह के असंतोष पैदा हुए। अस्सी के दशक का कृषक-संघर्ष इसका एक उदाहरण है जब अपेक्षाकृत धनी किसानों ने सरकार की नीतियों का विरोध किया। 1988 के जनवरी में उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में लगभग बीस हजार किसान जमा हुए। किसनों का यह बड़ा अनुशासित धरना था। धरने पर बैठे किसान, भारतीय किसान यूनियन (बी.के.यू.) के सदस्य थे। भारतीय किसान यूनियन पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों का एक संगठन था। भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। भारतीय किसान यूनियन ने गन्ने और गेहूँ के सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोत्तरी करने, कृषि उत्पादों के अंतर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियों को हटाने, समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करने, किसानों के बकाया कर्ज माफ करने तथा किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की माँग की। 1990 के दशक के शुरूआती सालों तक भारतीय किसान यूनियन ने अपने आप को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में किसान आंदोलन अस्सी के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक आंदोलन था।

आंध्रप्रदेश में चले शराब-विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान कुछ गंभीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?

दक्षिणी राज्य आंध्रप्रदेश में चल रहा शराब विरोधी आंदोलन, महिलाओं का एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन था। आंध्रप्रदेश के नेल्लौर जिले के एक दूर-दराज के गाँव दबरगंटा में 1990 के शुरूआती दौर में महिलाओ के बीच प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं में बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया। इस आंदोलन के मुद्दे निम्न प्रकार से हैं:
• महिलाएं अपने आस-पड़ोस में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थी। ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ़ लड़ाई छेड़ रखी थी।
• यह लड़ाई माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आंदोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्य में ताड़ी-विरोधी आंदोलन के रूप में जाना गया।

• ग्रामीणों को शराब की गहरी लत लग चुकी थी। इसके चलते वे शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो गए थे।
• महिलाओं का शारीरिक व मानसिक शोषण।
• घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, परिवार में तनाव एवं मारपीट का माहौल बनने लगा था।
• ग्रामीण अर्थव्यवस्था का प्रभावित होना।
• गाँवों में अपराधों का बढ़ना।

क्या आप शराब-विरोधी आंदोलन को महिला-आंदोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।

हाँ, शराब विरोधी आंदोलन को महिला-आंदोलन का दर्जा दिया जा सकता है क्योंकि यह आन्दोलन महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए किया गया था। परिवार में तनाव एवं मारपीट का माहौल बनने लगा था। नेल्लौर में महिलाएँ ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आई तथा उन्होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाया। ताड़ी विरोधी आंदोलन का नारा बहुत साधारण था: ‘ताड़ी की बिक्री बंद करो।’ इस साधारण नारे ने महिलाओं के जीवन को बहुत प्रभावित किया। स्थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दे को अपने आंदोलन में उठाना शुरू कर दिया। आंदोलन ने पहली बार महिलाओं को घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर बोलने का मौका दिया। उपरोक्त कारणों से यह स्पष्ट है कि शराब-विरोधी आंदोलन को महिला आंदोलन का दर्जा दिया जा सकता है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजनाओं का विरोध क्यों किया?

नर्मदा बचाओ आंदोलन नर्मदा नदी को बचाने के लिए आंदोलन था। इस आंदोलन ने नर्मदा सागर परियोजना के निर्माण का विरोध किया।
• इन्होंने माँग की कि अब तक की सभी विकास परियोजनाओं पर हुए खर्च की जाँच की जाए क्योंकि बाँध निर्माण की वजह से राज्यों के 245 गाँव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे और प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मामला सामने आया।
• आंदोलन में इस बात को भी बताया गया कि ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की भागीदारी होनी चाहिए और जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उनका प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए।
• आंदोलन के नेतृत्व ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि इन परियोजनाओं का लोगों के पर्यावास, आजीविका, संस्कृति तथा पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है।
• विस्थापन की वजह से संस्कृतियों का विनाश हो जाता है जो लोग विस्थापित होते उनकी रोजी-रोटी छीन जाती।
• क्षेत्र के लिए बन रही विकास परियोजनाओं पर वहाँ रह रहे लोगों से सलाह ली जाये।

क्या आंदोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

जन आंदोलन केवल सामूहिक कार्यवाही ही नहीं होता, बल्कि आंदोलन का एक कार्य लोगों को अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी बनाता है। भारत में चलने वाले विभिन्न सामाजिक आंदोलनों ने लोगों को इस संबंध में जागरूक बनाया है तथा लोकतंत्र को मजबूत किया है। भारत में समय-समय पर चिपको आंदोलन, ताड़ी विरोधी आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन तथा सरदार सरोवर परियोजना से संबंधित आंदोलन चलते रहे हैं, इन आंदोलनों ने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया है तथा उन वर्गों के सामाजिक आर्थिक हितों को उजागर किया है जो कि समकालीन राजनीति के द्वारा हल नहीं किये जा रहे थे।

दलित-पैंथर्स ने कौन-से मुद्दे उठाए?

इस समुदाय ने हमारे समाज में लंबे समय तक क्रूरतापूर्ण जातिगत अन्याय को सहन किया है। सातवें दशक के शुरूआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में 1972 में दलित समूह मुख्यतया जाति-आधरित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्याय की ऐसी ही नीतियों का कारगर क्रियान्वयन इनकी प्रमुख माँग थी। दलित महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का विरोध, दलितों में शिक्षा का प्रसार करना इनकी प्रमुख माँगें थी। सरकार ने 1989 में कानून बनाकर दलितों पर अत्याचार करने वालों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान किया। दलित पैंथर्स का बृहत्तर विचारात्मक एजेंडा जाति प्रथा को समाप्त करना तथा भूमिहीन गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन खड़ा करना था।

निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें:

लगभग सभी नए सामाजिक आंदोलन नयी समस्याओं जैसे: पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंधन के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपने आप में समाज व्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आंदोलन अतीत की क्रांतिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आंदोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है..सामाजिक आंदोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीजों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आंदोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो पाता है। ये आंदोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। ‘इस’ या ‘उस’ के विरोध (पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद विरोधी, ‘विकास’ – विरोधी आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों- ऐसी बात नहीं।
– रजनी कोठारी
(क) नए सामाजिक आंदोलन और क्रांतिकारी विचारधाराओं में क्या अंतर है?
(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आंदोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?
(ग) यदि सामाजिक आंदोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें ‘बिखरा’ हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज्यादा केंद्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।

उत्तर:

(क) नए सामाजिक आंदोलन शांतिपूर्ण होते हैं। ये आंदोलन धीरे-धीरे व्यवस्था परिवर्तन करने का प्रयास करते हैं। जबकि क्रांतिकारी विचारधारा पर आधारित आंदोलन कभी- कभी हिंसात्मक हो जाते हैं।
(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आंदोलन की एक बड़ी सीमा यह है कि एक ठोस तथा एकजुट आंदोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही गरीब वर्ग के लोगों के लिए अधिक उपयोगी हो पाता है।
(ग) अगर कोई आंदोलन किसी एक ही विशिष्ट मुद्दे को उठाते हैं तो उसको कहेंगे कि वह अपने ही मुद्दे पर कहीं ज्यादा केंद्रित है।

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