कक्षा 7 इतिहास अध्याय 7 एनसीईआरटी समाधान – क्षेत्रीय संस्कृतिओं का निर्माण

एनसीईआरटी समाधान कक्षा 7 इतिहास अध्याय 7 क्षेत्रीय संस्कृतिओं का निर्माण के प्रश्न उत्तर सीबीएसई और राजकीय बोर्ड शैक्षणिक सत्र 2024-25 के लिए यहाँ से मुफ़्त में प्राप्त किए जा सकते हैं। छात्रों की मदद के लिए सातवीं इतिहास के पूरे पाठ का विश्लेषण सरल भाषा में विडियो के माध्यम से दिया गया है। पाठ 7 के प्रश्नों के उत्तर पीडीएफ तथा विडियो दोनों ही माध्यम में प्राप्त किए जा सकते हैं तथा ये सभी उपयोग के लिए मुफ़्त हैं।

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क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण

आज जो स्वरुप हम भारत का देखते हैं जिसमें अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ और संस्कृतियाँ मौजूद हैं उनका विकास कई चरणों में जटिल प्रक्रिया से हुआ है। विकास की इस प्रक्रिया में स्थानीय परपंराओं और उपमहाद्वीप के अन्य भागों के विचारों के आदान-प्रदान ने एक-दूसरे को प्रभावित किया और संपन्न बनाया है। जैसा कि हम देखेंगे, कुछ परंपराएँ तो कुछ विशेष क्षेत्रों की अपनी हैं, जबकि कुछ अन्य भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में एक समान प्रतीत होती हैं। परंतु इसके अतिरिक्त, कुछ अन्य परंपराएँ एक खास इलाके के पुराने रीति-रिवाजों से तो निकली हैं, परंतु अन्य क्षेत्रों में जाकर उन्होंने एक नया रूप ले लिया है। इस प्रकार से क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण हुआ।

शासक और धार्मिक परंपराएँ जगन्नाथी संप्रदाय

क्षेत्रीय संस्कृतियों के विकास में धार्मिक विशवास और परम्पराओं का महत्वपूर्ण योगदान है। इस प्रक्रिया का सर्वोत्तम उदाहरण उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ का संप्रदाय (जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है, दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है)। आज तक जगन्नाथ की काष्ठ प्रतिमा, स्थानीय जनजातीय लोगों द्वारा बनाई जाती है जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि जगन्नाथ मूलत: एक स्थानीय देवता थे, जिन्हें आगे चलकर विष्णु का रूप मान लिया गया। वहां राज करने वाले अनेक राजा जगन्नाथ के उत्तराधिकारी के रूप में मानते थे। बाद में मुगलों, और अंग्रेजों ने भी अपनी सता को मजबूत करने के लिए मंदिर पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते थे।

राजपूत और शूरवीरता की परंपराएँ

उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश लोग उस क्षेत्र को जहाँ आज का अधिकाँश राजस्थान स्थित है, राजपूताना कहते थे। यह भी सच है कि राजस्थान में राजपूतों के अलावा अन्य लोग भी रहते हैं। तथापि, अक्सर यह माना जाता है कि राजपूतों ने राजस्थान को एक विशिष्ट संस्कृति प्रदान की। ये सांस्कृतिक परंपराएँ वहाँ के शासकों के आदर्शों तथा अभिलाषाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई थीं। ये शासक ऐसे शूरवीरों के आदर्शों को अपने हृदय में संजोए रखते थे, जिन्होंने रणक्षेत्र में बहादुरी से लड़ते हुए अक्सर मृत्यु का वरण किया, मगर पीठ नहीं दिखाई। राजपूत शूरवीरों की कहानियाँ काव्यों एवं गीतों में सुरक्षित हैं ये विशेष रूप से प्रशिक्षित चारण-भाटों द्वारा गाई जाती हैं।

कत्थक नृत्य की कहानी

‘कत्थक’ शब्द ‘कथा’ शब्द से निकला है, जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिए किया जाता है। कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा यानी कहानी सुनाने वालों की एक जाति थी। ये कथाकार अपने हाव-भाव तथा संगीत से अपने कथावाचन को अलंकृत किया करते थे। पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक एक विशिष्ट नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा। राधा-कृष्ण के पौराणिक आख्यान (कहानियाँ) लोक नाट्‌य के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे, जिन्हें ‘रासलीला’ कहा जाता था। रासलीला में लोक नृत्य के साथ कत्थक कथाकार के मूल हाव-भाव भी जुड़े होते थे। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तो देश में इसे छह ‘शास्त्रीय’ नृत्य रूपों में मान्यता मिल गई।

शास्त्रीय नृत्य से क्या है और इसमें कौन से नृत्य शामिल हैं?

शास्त्रीय नृत्य प्राचीन हिन्दू ग्रंथों के सिंद्धातों एवं नियमों और नृत्य के तकनीकी ग्रंथों तथा कला संबद्वता पर पूर्ण या आंशिक रूप से आधारित है। पारंपरिक ढंग से भारतीय शास्त्रीय नृत्य अभिनय के माध्यम से किया जाता रहा है। इसके विषय मुख्यतः ‘वैष्णव”, “शैव, “प्रकृति (शक्ति)” आदि होते हैं। नृत्य-रूप, जिन्हें इस समय शास्त्रीय माना जाता है, निम्नलिखित हैं:
1. भरतनाट्‌यम्‌ (तमिलनाडु)
2. कथाकली (केरल)
3. ओडिसी (उड़ीसा)
4. कुचिपुड़ि (आंध्र प्रदेश)
5. मणिपुरी (मणिपुर)

चित्रकला: लघुचित्रों की परंपरा

एक अन्य परंपरा जो कई रीतियों से विकसित हुई, वह थी लघुचित्रों की परंपरा। लघुचित्र (जैसा कि उनके नाम से पता चलता है) छोटे आकार के चित्र होते हैं, जिन्हें आमतौर पर जल रंगों से कपड़े या कागज़ पर चित्रित किया जाता है। प्राचीनतम लघुचित्र, तालपत्रों अथवा लकड़ी की तख्तियों पर चित्रित किए गए थे। इनमें से सर्वाधिक सुंदर चित्र, जो पश्चिम भारत में पाए गए जैन ग्रंथों को सचित्र बनाने के लिए प्रयोग किए गए थे। मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ ने अत्यंत कुशल चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया था, जो प्राथमिक रूप से इतिहास और काव्यों की पाण्डुलिपियाँ चित्रित करते थे। इनके साथ-साथ, मेवाड़, जोधपुर, बूंदी, कोटा और किशनगढ़ जैसे केंद्रों में पौराणिक कथाओं तथा काव्यों के विषयों का चित्रण बराबर जारी रहा। 1739 में नादिरशाह के आक्रमण और दिल्ली विजय के परिणामस्वरूप मुगल कलाकार, मैदानी इलाकों की अनिश्चितताओं से बचने के लिए पहाड़ी क्षेत्रों की ओर पलायन कर गए। उन्हें वहाँ जाते ही आश्रयदाता तैयार मिले, जिसके फलस्वरूप चित्रकारी की कागंडा़ शैली विकसित हुई।

बंगाली साहित्य पर किसका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है?

बंगाली के प्रारंभिक साहित्य को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है एक श्रेणी, संस्कृत की ऋणी है और दूसरी, उससे स्वतंत्र है। पहली श्रेणी में संस्कृत महाकाव्यों के अनुवाद, ‘मंगलकाव्य’ (शाब्दिक अर्थों में शुभ यानी मांगलिक काव्य, जो स्थानीय देवी-देवताओं से संबंधित है), और भक्ति साहित्य जैसे गौड़ीय वैष्णव आंदोलन के प्रणेता श्री चैतन्य देव की जीवनियाँ आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी में नाथ साहित्य शामिल है जैसे, मैनामती-गोपीचंद्र के गीत, धर्म ठाकुर की पूजा से संबंधित कहानियाँ, परीकथाएँ, लोककथाएँ और गाथागीत।

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