एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 7 संघवाद
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 7 संघवाद के प्रश्न उत्तर अभ्यास के सवाल जवाब हिंदी और अंग्रेजी में सीबीएसई तथा राजकीय बोर्ड सत्र 2024-25 के लिए यहाँ से मुफ्त में प्राप्त करें। कक्षा 11 में राजनीति शास्त्र की पुस्तक भारत का संविधान, सिद्धांत और व्यवहार के पाठ 7 के उत्तर तथा अतिरिक्त प्रश्न उत्तर यहाँ दिए गए हैं ताकि छात्र परीक्षा की तैयारी आसानी से कर सकें।
कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 7 संघवाद के प्रश्न उत्तर
बताएं कि निम्नलिखित में कौन-कौन सा कथन सही होगा और क्यों?
संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेनदेन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुंचेगी।
संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केन्द्र में सत्तासीन हैं उनकी शक्तियाँ सीमित रहे।
उत्तर:
पहला कथन सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में सभी को अपनी-अपनी संस्कृति के विकास का पूरा अवसर प्राप्त होता है जिसमें यह भी भय नहीं रहता है कि किसी पर दूसरे की संस्कृति लाद दी जायेगी। तीसरा कथन भी सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में शक्तियों का केन्द्र व प्रान्तों में बंटवारा करके केन्द्र की शक्तियों को सीमित किया जाता है।
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिंदुओं पर आपके सुझाव हों
केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बंटवारा
वित्त-संसाधनों का वितरण
राज्यपालों की नियुक्ति
उत्तर:
बहुल समाज में सभी वर्गों के विकास के लिए व उनके हितों की रक्षा के लिए प्रजातंत्र संघीय शासन प्रणाली अत्यंत आवश्यक है। संघीय ढांचे का निर्माण संविधान की योजना के आधार पर तय किया जाना चाहिए।
केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बंटवारा:
शक्तियों को केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच वितरित किया जाता है। संविधान तीन सूचियों में स्पष्ट रूप से विषयों का सीमांकन करता है। विवादों का निपटारा न्यायपालिका द्वारा किया जाता है। आर्थिक और वित्तीय शक्तियां केंद्र सरकार को केंद्रीकृत कर दी गई हैं।
वित – संसाधनों का वितरण:
संघीय शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषता केन्द्र व प्रांतों के बीच शक्तियों के बंटवारे से हैं। संघ का निर्माण संघीय सिंद्धातों के आधार पर होना चाहिए जिसमें संघ राज्यों की मर्जी पर आधारित होना चाहिए। प्रांतीय व क्षेत्रीय विषयों पर राज्यों का नियंत्रण होना चाहिए। संघ के पास केवल राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय महत्व के विषय होने चाहिए।
राज्यपालों की नियुक्ति:
राज्यपाल राज्यों का संवैधानिक मुखिया होता है, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार की सलाह पर करता है। राज्यपाल राज्यों में महत्वपूर्ण पद है जो संवैधानिक मुखिया के साथ–साथ केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल के पद की इस स्थिति के कारण इसका राजनीतिकरण हो गया है। अत: संघीय व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक है कि इस पद का दुरूपयोग ना हो या राज्यपाल के पद पर निष्पक्ष व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिए।
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों ?
सामान्य भाषा
सामान्य आर्थिक हित
सामान्य क्षेत्र
प्रशासनिक सुविधा
उत्तर:
यद्यपि अभी तक भारत में राज्यों का गठन 1956 के कानून के आधार पर भाषा के आधार पर होता है परंतु वर्तमान परिस्थिति में प्रशासनिक सुविधा को राज्यों के पुनर्गठन का प्रमुख आधार पर माना जाता है ताकि लोगों को अच्छा व कुशल शासन प्रदान किया जा सके जिसमें स्थानीय लोगों का विकास भी संभव हो सके।
उत्तर भारत के प्रदेशों – राज्यस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिंदी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचार से संगत होगा? तर्क दीजिए।
यदि उत्तर भारत के प्रदेशों – राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा बिहार जो कि सभी हिन्दी भाषी हैं, सभी को मिला दिया जाए तो भाषीय व सांस्कृतिक दृष्टि से तो वे सब एक ईकाई के रूप में इकट्ठे हो सकते हैं परंतु प्रशासनिक दृष्टि से यह असुविधाजनक होगा। हाल में छत्तीसगढ़, उत्तराखंड व झारखंड का निर्माण प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण के आधार पर ही किया गया है।
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिसमें प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई हैं।
निम्न चार ऐसी विशेषताएं हैं जिनके आधार पर केंद्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है:
केन्द्र के पक्ष में शक्तियों का बंटवारा:
राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियॉं
राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था
अखिल भारतीय सेवाओं की भूमिका
बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों नहीं हैं?
भारतीय राजनीति में सबसे चर्चित पद राज्यपाल का पद है। अधिकांश राज्यों को अपने यहॉं के राज्यपालों से किसी कारण से शिकायत रहती है इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश राज्यपालों की राजनीतिक पृष्ठभूमि होती है जिसके आधार पर केन्द्र के शासक दल के द्वारा उनकी नियुक्ति होती है। अत:, ये राज्यपाल निरपेक्ष रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते हैं। इनकी भूमिका केन्द्र के एजेंट के रूप में होती है जिसके आधार पर इनकी जिम्मेदारी केन्द्रीय हितों की रक्षा करना होता है परंतु ये केन्द्र की सरकार के दल के हितों के रक्षक बन जाते हैं जिससे राज्यों की सरकारों व राज्यपालों में टकराव पैदा होता है।
यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताऍं कि निम्नलिखित में कौन सी स्थिति किसी प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं। संक्षेप मे कारण भी दें।
राज्य की विधान सभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की मॉंग कर रहा है।
फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएं बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
प्रदेश में हाल में हुए विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल, दूसरे दल के कुछ विधायिकों को धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
केन्द्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन हैं और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
सांप्रादयिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इंनकार कर दिया है।
उत्तर:
उपरोक्त परिस्थितियों में (ग) में दिया गया उदाहरण राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है जैसा कि हाल में बिहार में हुआ है। ऐसी स्थिति में जब चुनाव के बाद किसी भी दल को आवश्यक बहुमत प्राप्त ना हो तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि राजनीतिक दल सरकार बनाने के प्रयास में जोड़–तोड़ की राजनीति व विधायकों की खरीद फरोख्त प्रारंभ कर दें।
ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या मागें उठाई हैं?
1960 से लगातार विभिन्न राज्यों से प्रांतीय स्वंतत्रता की मांग लगातार उठायी जाती रही हैं। पश्चिम बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर व कुछ उत्तर-पूर्वी राज्यों से विशेष रूप से यह मांग आती रही है जिसमें प्रमुख रूप से निम्न मागें हैं:
केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का बंटवारा प्रांतों के पक्ष में होना चाहिए।
राज्यों की केन्द्र पर आर्थिक निर्भरता नहीं होनी चाहिए।
राज्यों के मामलों में केन्द्र का कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिए।
राज्यपाल के पद का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों में मुख्यमंत्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए।
सांस्कृतिक स्वायत्तता होनी चाहिए।
संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए।
क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?
उत्तर-पूर्वी राज्यों (असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा) के विकास के लिए विशेष प्रावधान हैं। इन राज्यों के राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ प्राप्त हैं। कमजोर और पिछड़े राज्यों के विकास के लिए विशेष सुविधाएँ देना अनुचित नहीं है और न ही अन्य प्रदेशों को इससे असहमत होना चाहिए। लेकिन जैसे जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा देकर शेष राज्यों से विशिष्ठ बना दिया गया था। इस प्रकार का प्रावधान देश के अन्दर विभाजन को बढ़ावा देता है। भौगोलिक और सामजिक विषमता के आधार पर राज्यों को कुछ विशेष प्रकार की सहायता प्रदान की जा सकती है।