एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व के प्रश्न उत्तर अभ्यास के सभी सवाल जवाब हिंदी मीडियम में सत्र 2024-25 के लिए यहाँ से प्राप्त किए जा सकते हैं। ग्यारहवीं कक्षा में भारत का संविधान, सिद्धांत और व्यवहार के पाठ 3 के सही प्रश्नों के उत्तर सरल भाषा में यहाँ दिए गए हैं।
कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व के प्रश्न उत्तर
भारत की चुनाव-प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमज़ोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक पहुंची है। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझायेंगें?
चुनाव प्रणाली को मजबूत बनाने और उसकी कमियों और कमजोरियों को दूर करने के लिए यह अनिवार्य है कि लोकतांत्रिक समाज स्वतंत्रता और निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने के तरीके खोजते रहे। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातिओ के लिए भारत के संविधान में संसद और राज्यों की विधानसभा में सीटें आरक्षित हैं किंतु महिलाओं के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है ऐसी स्थिति में सुधार के लिए हम निम्न उपाय अपना सकते हैं, महिलाओं के लिए विधान सभाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित की जा सकती है।
महिलाओं के शैक्षणिक स्तर में वृद्धि करके उन्हें सामाजिक और आर्थिक तौर पर ऊपर उठाया जा सकता है। महिलाओं के साथ परिवार में समानता का व्यवहार करते हुए समाज को पितृसत्तातमक होने से रोका जा सकता है। इससे हम महिलाओं को समाज, राजनीति में आगे आने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। इसके अलावा महिलाएं स्वयं अपने लिए आवाज उठाने जागरुकता बढ़ाने के लिए कदम बढ़ा सकती है। गौरतलब है कि संसद में कई बार इस तरह की संशोधन के लिए प्रस्ताव दिया गया है किंतु अभी तक उसे पारित नहीं किया गया।
निम्नलिखित मे कौन सा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदलकर, जोड़कर अथवा नये क्रम में सजाकर इसे सही करें।
(क) एक फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत से जीत वाली) प्रणाली का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज़्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर:
(क) यह कथन गलत है क्योंकि पी.टी.पी. प्रणाली का प्रयोग हर समय नहीं होता है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, तथा राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव एकल मत प्रणाली के द्वारा होता है। अन्य चुनावों में पी.टी.पी प्रणाली का पालन होता है।
(ख) यह कथन सही है।
(ग) यह कथन गलत है कि भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता। लेकिन राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त का हटा सकता है जब उसके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध हो जाए।
(घ) यह कथन सही है।
एक नये देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जताई। प्रत्येक कथन के बारे में बतायें कि उनके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक) प्रणाली उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए। कि उनका प्रतिनिधि कौन है ताकि वे उसे निजी तौर पर ज़िम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषाई रूप से अल्पसंख्यक छोटे-छोटे समुदाय हैं और देश भर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसंद न करते हों।
उत्तर:
(क) लोगों की इच्छाओं को अधिक प्रभावी रूप से व्यक्त करने के लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट मत प्रणाली सबसे अधिक उपयुक्त होगी क्योंकि इसमें नागरिकों को प्रतिनिधियों का सीधा संपर्क रहता है तथा नागरिक अपनी प्रतिनिधित्व को सीधे से ज़िम्मेदार ठहराकर उन्हें अगले चुनाव में सत्ता से हटा सकता है। प्रथम रूप से इस प्रणाली में नागरिकों को अपनी पंसद का उम्मीदरवार चुनने का मौका मिलता है।
(ख) सभी अलपसंख्यकों को उनकी संख्या के आधार पर उसी अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आनुपातिक मत प्रणाली का कोई एक तरीका प्रयोग करना चाहिए, जिससे सभी अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व मिल सकें। भारत में अनेक धर्म, जाति, भाषा व संस्कृति के अल्पसंख्यक हैं। जिनके उचित प्रतिनिधित्व के लिए अनुपातिक मत प्रणाली अधिक उपयुक्त है।
(ग) इस वर्ग के लोगों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए अनुपातिक मत प्रणाली का लिस्ट प्रणाली प्रयोग में लाया जा सकता है जिसके अनुसार राजनीतिक दलों को मिलने वाले वोटों व उनके द्वारा प्राप्त सीटों में एक निश्चित अनुपात पाया जा सकता है।
(घ) फ.पा.टी.पो. प्रणाली में नागरिक अपनी पंसद का उम्मीदवार चुन सकते हैं। भले वे उसे उम्मीदवार के राजनीतिक दल को पंसद नहीं करते हों।
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आये। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वंतत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की संभावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होनी चाहिए आप इसमें किस पक्ष से सहमत है और क्यों?
यह सही है कि एक मुख्य चुनाव आयुक्त अवकाश ग्रहण करने के बाद एक राजनीतिक दल की सदस्यता ली व उस राजनीतिक दल के उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़ा। यह भी सही है कि मुख्य चुनाव आयुक्त भी एक राजनीतिक नागरिक है व उस रूप में उसके अपने राजनीतिक अधिकार है जिसके आधार पर वह किसी राजनीतिक दल कि सदस्यता प्राप्त कर सकता है व चुनाव भी लड़ सकता है। परंतु चुनाव आयुक्त क्योंकि उस पद पर स्वयं रह चुका है। अत: उचित यह रहेगा कि चुनाव आयुक्त राजनीति से दूर रहें, वे किसी प्रकार का चुनाव आदि ना लड़ें।
भारत का लोकतंत्र अब अनगढ़ फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिधात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क दें।
वर्तमान में भारत में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली को अपनाया गया है जिसमें प्रत्येक नागरिक अपनी पसंद के उम्मीदवार के पक्ष में अपना मत व्यक्त करता है चुनाव की समाप्ति के बाद मत की गणना की जाती है जिस उम्मीदवार को बहुमत मिलता है उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है लेकिन कुछ चुनाव में जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा राज्यसभा के चुनाव अतिरिक्त मत प्रणाली से किये जाते हैं जिसमें मतदाता अलग-अलग उम्मीदवारों के प्रति अपनी पसंद व्यक्त करते हैं।
फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है। जो:
(क) सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर:
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
पृथक निर्वाचन-मंडल और आरक्षित चुनाव-क्षेत्र के बीच क्या अंतर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
पृथक निर्वाचन-मंडल और आरक्षित चुनाव-क्षेत्र के बीच निम्नलिखित अंतर है:
स्वतंत्रता के पूर्व भी इस विषय पर बहस हुई थी कि ब्रिटिश सरकार ने पृथक निर्वाचन मंडल की शुरूआत की थी। इसका अर्थ यह था कि किसी समुदाय के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी समुदाय के लोग वोट डाल सकेंगे। संविधान सभा के अनेक सदस्यों को इस पर शक था। उनका विचार था कि यह व्यवस्था हमारे उद्देश्य को पूरा नहीं करेगी। इसलिए, आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था को अपनाया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत, किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदाता वोट तो डालेंगे लेकिन प्रत्याशी केवल उसी समुदाय या सामजिक वर्ग का होगा जिसके लिए वह सीट आरक्षित है।
संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल को इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि:
अनेक ऐसे सामजिक समूह है जो पूरे देश में फैले हुए हैं। किसी एक निर्वाचन क्षेत्र में उनकी इतनी संख्या नहीं होती कि वे किसी प्रत्याशी की जीत को प्रभावित कर सके। लेकिन पूरे देश पर नज़र डालने पर वे अच्छे खासे बड़े समूह के रूप में दिखाई देते हैं। उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था ज़रूरी हो जाती है। संविधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोक सभा तथा राज्य की विधान सभाओं में आरक्षण की व्यवस्था करता है। प्रारंभ में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए की गई थी, पर अनेक सवैधानिक संशोधनों द्वारा इसे बढ़ाकर 2010 तक कर दिया गया था। आरक्षण की अवधि खत्म होने पर संसद का वही अनुपात है जो भारत की जनंसख्या में इसका अनुपात है। आज लोकसभा की 543 निर्वाचित सीटों में 79 अनुसूचित जाति और 41 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं।