एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन के सवाल जवाब अंग्रेजी और हिंदी मीडियम में सीबीएसई सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। 11वीं कक्षा राजनीति शास्त्र के छात्र भारत का संविधान, सिद्धांत और व्यवहार के पाठ 10 के सभी प्रश्न उत्तर सरल भाषा में यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।
कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन के प्रश्न उत्तर
नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएं कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता?
लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत
सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग मे दूरगामी के लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएं।
शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर:
औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें:
धर्मनिरपेक्षता की समझ
अनुच्छेद 371
सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
सार्वभौम वयस्क मताधिकार
उत्तर:
भारत के संविधान निर्माता विभिन्न समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को उतना ही जरूरी मानते थे जितना विभिन्न व्यक्तियों के बीच बराबरी को। इसका कारण यह है कि किसी व्यक्ति की स्वंतत्रता और आत्म-सम्मान का भाव सीधे-सीधे उसके समुदाय की हैसियत पर निर्भर करता है। भारतीय संविधान सभा धार्मिक समुदायों को शिक्षा-संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता होता है।
अनुच्छेद 371 के तहत पूर्वोत्तर के प्रदेश नागालैंड को विशेष दर्जा दिया गया। यह अनुच्छेद न सिर्फ नागालैंड में पहले से लागू नियमों को मान्यता प्रदान करता हैं बल्कि आप्रवास पर रोक लगाकर स्थानीय पहचान की रक्षा भी करता है।
भारत के समाज में कमजोर तथा पिछड़े लोगों के विकास के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। जिसका उदेश्य अफरमेटिव एक्शन के कार्य से लोगों में समानता स्थापित करना है।
सार्वभौम वयस्क मताधिकार से अभिप्राय यह है कि 18 वर्ष की आयु के हर व्यक्ति को लोकसभा के लिए मतदान करने का अधिकार होगा। इस रिपोर्ट में ऐसे हर व्यक्ति को नागरिक का दर्जा प्रदान किया गया जो राष्ट्र की भू-सीमा में पैदा हुआ है और जिसने किसी अन्य राष्ट्र की नागरिकता ग्रहण नहीं की है अथवा जिसके पिता ने इस भू-सीमा में जन्म लिया हो या बस गए हो। इस तरह, शुरूआती दौर से ही सार्वभौम मताधिकार को अत्यंत महत्वपूर्ण और वैधानिक साधन माना गया जिसके सहारे राष्ट्र की जनता अपनी इच्छा का इजहार करती है।
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है?
राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएं कि आप इनमें किस-से सहमत हैं और क्यों?
जयेश – मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।
सबा – क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरूषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश – मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय-शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा – तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहॉं से भी आई हो।
उत्तर:
उपरोक्त वाक्यों में दिए गए जयेश व नेहा के बीच विचार विमर्श से कहा जा सकता है कि काफी हद तक दोनों ही ठीक हैं। जयेश का कथन सही है कि हमारा संविधान उधार का दस्तावेज है क्योंकि हमने अनेक संस्थाएं विदेशों से ली हैं हमने इन विदेशियों की संस्था को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ढाला है।
नेहा का कथन भी सही है कि भारतीय संविधान में सब कुछ विदेशी नहीं है। भारतीय भी बहुत कुछ है इनमें प्रथाएं, परम्पराएं व इतिहास का प्रभाव है। जिनसे संविधान प्रभावित होता है। भारत सरकार का अधिनियम 1935 व नेहरू रिपोर्ट का भारतीय संविधान पर गहरा प्रभाव है।
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें।
विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी। आधारभूत महत्व की उपलब्धि
संविधान – सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। प्रक्रियागत उपलब्धि
व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्व को स्वीकार करना। लैंगिक – न्याय की उपेक्षा।
अनुच्छेद 371 उदारवादी व्यक्तिवाद
महिलाओं और बच्चों को परिवार
की संपति में असमान अधिकार। धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना।
उत्तर:
विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी। आधारभूत महत्व की उपलब्धि
संविधान – सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना। प्रक्रियागत उपलब्धि
व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्व को स्वीकार करना। उदारवादी व्यक्तिवाद
अनुच्छेद 371 धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना।
महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपति में असमान अधिकार। लैंगिक – न्याय की उपेक्षा।
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमे लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन सा प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप से किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारतीय संविधान में लैंगिक न्याय के लिए कुछ नहीं दिया गया है। इसी कारण से समाज में अनेक रूपों में लैंगिक अन्याय व्याप्त है। तथापि भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार के भाग अनु. 14,15 और 16 में कहा गया है कि लिंग के आधार पर कानून के सामने सार्वजनिक स्थान पर व रोजगार के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जा सकता। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अध्याय में महिलओं के सामाजिक व आर्थिक न्यायोचित विकास की व्यवस्था की गयी है। कमान कार्य के बदले समान वेतन की व्यवस्था की गयी है।
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थीं? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर के कारण बताएं।
भारतीय संविधान सभा प्रतिनिध्यात्मक नहीं थी। यह बात कुछ सीमा तक ठीक है क्योंकि इसका चुनाव प्रत्यक्ष तरीके से नहीं किया गया था। यह 1946 के चुनाव पर गठित विधान सभाओं के द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से गठित की गए थी। मताधिकार प्रचलित था। इसमें काफी लोगों को मनोनीत किया गया था परंतु यह भी कहना होगा कि उन परिस्थितियों में इससे अधिक संभव भी नहीं था। इसे प्रतिनिधत्व देने के लिए सदस्यों को मनोनीत भी किया गया। उन परिस्थितियों में अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली थी।
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि- ‘एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निर्देशक तत्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए – यह स्पष्ट नहीं है।‘ आप क्या जानते हैं सामजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर:
भारतीय संविधान के तृतीय भाग में अनुच्छेद 12 से लेकर 35 में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। जो मौलिक अधिकार इस भाग में है। उनका स्वरूप राजनीतिक सांस्कृतिक व नागरिक हैं तथा आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकार में समायोजित नहीं किया गया है।
भारतीय संविधान के चौथे भाग में अनु. 36 से 51 तक राज्य की नीति निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है जिसमें नागरिकों के लिए सामाजिक आर्थिक सुविधा का वायदा किया गया है। जिसमें रोजगार, विकास, आर्थिक सुरक्षा व समान सुनिश्चित वेतन की व्यवस्था की गयी है। वे सभी आर्थिक सुविधाएं अधिकार के रूप में नहीं केवल वायदे के रूप में दी गई हैं। इसका यह कारण है कि जिस समय देश आजाद हुआ उस समय हमारे पास पर्याप्त मात्रा में आर्थिक स्त्रोत नहीं थे। भारतीय नागरिकों के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक समझी गयी परंतु इनको अधिकार के रूप में शामिल नहीं किया गया है। इनमें सामाजिक व आर्थिक अधिकार व सुविधाएं भी शमिल हैं।