एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 9 संविधान एक जीवंत दस्तावेज
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज के सभी प्रश्नों के उत्तर अभ्यास के सवाल जवाब सीबीएसई तथा राजकीय बोर्ड सत्र 2024-25 के लिए यहाँ से निशुल्क प्राप्त किए जा सकते हैं। 11वीं कक्षा के विद्यार्थी भारत का संविधान, सिद्धांत और व्यवहार के पाठ 9 के सभी प्रश्न उत्तर हिंदी मीडियम में यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं।
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है: संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि
(क) परिस्थितियॉं बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासांगिक हो जाता है।
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर:
(क) परिस्थितियॉं बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
बुनियादी ढॉचें के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिन्हित करें। गलत वाक्य को सही करें।
(क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ख) बुनियादी ढॉचें को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढांचे के अंतर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपदित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियॉं बढी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी बुनियादी ढॉंचें के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
उपरोक्त में दिए गए सभी कथन सही हैं।
सन् 2000-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन सा निष्कर्ष निकालेंगे
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलो के बीच कोइ वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया। इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोइ वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
विधायिका में किसी प्रस्ताव या विधेयक को पारित करने के लिए सदन में उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है। ये सभी सदस्य एक विधेयक पर मतदान करते हैं। अगर इन सदस्यों में से कम से कम आधे से अधिक सदस्य विधेयक के पक्ष में मतदान करते हैं तो विधेयक को पारित माना जाता है लेकिन संशोधन विधेयक पर वह बात लागू नहीं होती।
संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है:
पहले संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के सदस्यों की संख्या के कम से कम आधी होनी चाहिए।
दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वंतत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है।
कोई भी संशोधन विधेयक विशेष बहुमत के बिना पारित नहीं किया जा सकता। लोकसभा में 545 सदस्य होते हैं। अत: किसी भी संशोधन विधेयक का समर्थन करने के लिए 273 सदस्यों की आवश्यकता होती है। अगर मतदान के समय 300 सदस्य मौजूद हों तो विधेयक पारित करने के लिए 273 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी।
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और ससंद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। जो निम्नलिखित हैं:
तकनीकी या प्रशासनिक भाषा में संशोधन: भारतीय संविधान के पहली श्रेणी मे तकनीकी या प्रशासनिक भाषा में संशोधन हैं। ये संशोधन संविधान के मूल उपबंधों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से सबंधित है। उन्हें केवल तकनीकी भाषा में संशोधन कहा जा सकता है। वास्तव में वे इन उपबंधों में कोई विशेष बदलाव नहीं करते हैं।
उदाहरण के लिए- उच्च न्यायाल के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा का 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना और इसी प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन बढ़ाने संबंधी संशोधन हैं तथा विधायिकाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण संबंधित संशोधन हैं, जो मूल उपबंध में आरक्षण की बात दस वर्ष की अवधि के लिए कही गई थी। परंतु इन वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए इस अवधि को प्रत्येक दस वर्षों की समाप्ति पर एक संशोधन द्वारा आगामी दस वर्षों के लिए बढ़ाना आवश्यकता समझा गया।
संविधान की व्याख्याऍं: संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायापालिका और सरकार के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। इस तरह के टकराव पैदा होने पर संसद को संशोधन का सहारा लेकर संविधान की किसी एक व्याख्या का प्रमाणिक सिद्ध करना पड़ता है। प्रजातंत्र में विभिन्न संस्थाएं संविधान और अपनी शक्तियों की अपने-अपने तरीके से व्याख्या करती है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अहम लक्षण है। कई बार संसद इन न्यायिक व्याख्याओं से सहमत नहीं होती और उसे न्यायपलिका के नियमों को नियंत्रित करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए – मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांतों को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते हैं इसी प्रकार निजी संपति के अधिकार के दायरे तथा संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर भी दोनों के बीच विवाद उठते रहे हैं।
राजनीतिक दलों में आम सहमति के माध्यम से संशोधन: संविधान में बहुत से संशोधन ऐसे हैं, जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किए गए हैं। दल बदल विरोध कानून के अलावा इस काल में मताधिकार की आयु को 21 से 18 वर्ष करने के लिए संविधान में 73वॉं और 74वॉ संशोधन किए गए थे। इस काल में नौकरियों मे आरक्षण सीमा बढाने और प्रवेश संबंधी नियमों को स्पष्ट करने के लिए भी संशोधन किए गए।
विवादास्पद संशोधन: भारतीय संविधान में संशोधन करने के प्रश्न पर आज तक कोई विवाद उत्पन्न नहीं हुआ। पंरतु अस्सी के दशक में इन संशोधनों को लेकर विधि और राजनीति के दायरों में भारी बहस छिड़ी थी। 1971-1976 के समय में विपक्षी दल इन संशोधनों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था कि इन संशोधनों के माध्यम से सतारूढ़ दल संविधान के मूल स्वरूप को बिगाड़ना चाहते हैं। इस संबंध में, 38वॉं, 39वॉं और 42वॉं संशोधन विशेष रूप में विवादास्पद रहे हैं। जून 1975 में देश में आपात्काल की घोषणा की गई। ये तीन संशोधन इस पृष्ठभूमि से निकले थे, इन संशोधनों का लक्ष्य संविधान के कई महत्वपूर्ण हिस्सों में बुनियादी परिवर्तन करना था।
अगर संशोधन की शक्ति जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने के अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
संविधान के विशेष खंडों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद में संविधान में संशोधन करने के दो तरीके दिए गए हैं। ये तरीके संविधान के सभी अनुच्छेदों पर एक समान रूप से लागू नहीं होते। एक तरीके के अंतर्गत संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन करने की बात कही गई है। दूसरा तरीका ज्यादा कठोर है। इसके लिए संसद के विशेष बहुमत और राज्य विधानपालिका की आधी संख्या की आवश्यकता होती है।
इसी प्रकार संसद या कुछ मामलों में राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के पश्चात इस संशोधन की पुष्टि करने के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं होती। अन्य सभी विधेयकों की तरह संशोधन विधेयक को भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है पंरतु इस मामलें में राष्ट्रपति को पुनर्विचार करने के अधिकार नही है। इन बातों से पता चलता है कि संशोधन की प्रक्रिया कितनी कठोर और जटिल हो सकती है।