एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 4 कार्यपालिका
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 4 कार्यपालिका के अभ्यास के प्रश्न उत्तर हिंदी और अंग्रेजी मीडियम में शैक्षणिक सत्र 2024-25 के लिए यहाँ से निशुल्क प्राप्त करें। कक्षा 11 में राजनीति शास्त्र की पुस्तक भारत का संविधान, सिद्धांत और व्यवहार के पाठ 4 के सभी सवाल जवाब सीबीएसई तथा राजकीय बोर्ड के छात्र विस्तार से प्राप्त कर सकते हैं।
कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 4 कार्यपालिका के प्रश्न उत्तर
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है:
(क) जहाँ ससंद हो वहॉं कार्यपालिका का होना
(ख) ससंद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका
(ग) जहाँ ससंद कार्यपालिका के रूप में काम करती है
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो ससंद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो
उत्तर:
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो ससंद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तरफ से सहमत हैं और क्यों?
अमित : संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना है।
शमा : राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है इस कारण उसे प्रधानमंत्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए।
राजेश : हमें राष्ट्रपति की जरूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधानमंत्री बने।
उत्तर:
शमा के बात से हम सहमत हैं कि क्योकिं राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है इसलिए उसे हटाने का अधिकार भी होना चाहिए। सिद्धांत यह है कि राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री को औपचारिक रूप से नियुक्त करता है तथा संविधान के अनुच्छेद 78 के अनुरूप यदि प्रधानमंत्री अपना कार्य ना करे तो उसे हटा भी सकता है। यह राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के सबंधों में हुआ था।
क्या मत्रिमंडल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है? आप क्या सोचते हैं अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 74 में लिखा है कि राष्ट्रपति को उसके कार्यों में सलाह देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिमंडल होगा जो उनकी सलाह के अनुसार कार्य करेगा।
42वें संविधान संशोधन के अनुसार यह निश्चित किया गया था कि राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सलाह अनिवार्य रूप से माननी होगी। लेकिन संविधान के 44 वें संविधान संशोधन में फिर यह निश्चित किया कि राष्ट्रपति प्रथम बार में मंत्रिमंडल की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है, वह उस सलाह को दोबारा विचार-विमर्श के लिए वापस भेज सकता है लेकिन दोबारा विचार विमर्श करने के बाद सलाह को उसे अनिवार्य रूप से मानना होगा।
संसदीय’-व्यवस्था ने कार्यपालिका को नियंत्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत-से अधिकार दिए हैं। कार्यपालिका को नियंत्रित करना इतना ज़रूरी क्यों है? आप क्या समझते हैं?
संसदीय सरकार की यह प्रमुख विशेषता व गुण है कि वह एक ज़िम्मेवार और उत्तरदायी सरकार है। इसमें कार्यपालिका संसद के प्रति ज़िम्मेवार होती है। दोनों में गहरा सबंध होता है व विभिन्न संसदात्मक तरीकों से व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर लगातार अपना नियंत्रण बनाती है। जो आवश्यक भी है क्योंकि संसदात्मक व्यवस्थापिका कार्यपालिका की मनमानी पर रोक लगती है पर इससे राष्ट्र व जनहित के निर्णय लिए जाते हैं व्यवस्थापिका जनमत पर नियंत्रण काम रोको प्रस्ताव का सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार पर नियंत्रण करती है जो स्वच्छ प्रशासन व जनहित के लिए आवश्यक भी है।
कहा जाता है कि प्रशासनिक-तंत्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज़्यादा से ज़्यादा स्वायत्त एजेंसियॉं बननी चाहिए जिन्हें मंत्रियों को जवाब न देना पडे़।
(क) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन ज्यादा जन-हितैषी होगा?
(ख) क्या इससे प्रशासन की कार्य कुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतंत्र का अर्थ वह होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधित्व का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो?
उत्तर:
हमारे यहाँ दो प्रकार की कार्यपालिकायें हैं:
एक राजनीतिक कार्यपालिका जो अस्थाई होती है व जिसमें मंत्रियों के रूप में जनप्रतिनिधि होते हैं। दूसरी स्थाई कार्यपालिका होती हैं जिसमें सरकारी विभागों के कर्मचारी होते हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में अनुभवी व विशेषज्ञ होते हैं।
स्थाई नौकरशाही एक निश्चित राजनितिक-प्रशासनिक वातावरण में कार्य करती है जिसमे क्षमताओं को नकरात्मक रूप से प्रभावित करता है परंतु संसदात्मक कार्यपालिका में यह संभव नही है कि प्रशासनिक संस्थाएँ पूरी तरह से स्वायत्त हों तथा उसमें राजनीतिक सलाह का कोई प्रभाव ना हो।
प्रतिनिधि-आत्मक प्रजातंत्र में जनप्रतिनिधि जनता के हितों के रक्षक माने जाते हैं तथा प्रशासनिक कर्मचारियों व प्रशासनिक अधिकारियों का यह दायित्व है कि जनप्रतिनिधि के निर्देशन में जनहित का ध्यान रखते हुए नीति निर्माण करें।
(क) नहीं, यह प्रशासन को अधिक लोगों के अनुकूल नहीं बनाएगा क्योंकि यह एकतरफा कार्य करेगा और इस प्रकार, नियंत्रण और संतुलन के दृष्टिकोण के बिना अपनी जवाबदेही खो देगा। प्रशासन के कामकाज में निश्चित रूप से एक राजनीतिक अंतर्संबंध है। इस प्रकार, अधिक स्वायत्त एजेंसियां होनी चाहिए जिनके पास मंत्रियों को जवाब देने की कोई जिम्मेदारी नहीं है। चुने हुए प्रतिनिधि और मंत्री जनता के प्रतिनिधि होते हैं और प्रशासन उनके नियंत्रण और नियमन के अधीन होता है, इसलिए वे विधायिका द्वारा अपनाई गई नीतियों की अवज्ञा में कार्य नहीं कर सकते। नौकरशाही से भी राजनीतिक रूप से तटस्थ होने की उम्मीद की जाती है। देश में नीति बनाने और उन्हें लागू करने में समझदारी और कुशलता से भाग लेना प्रशासनिक तंत्र का कर्तव्य है।
(ख) यह प्रशासन को अधिक कुशल नहीं बनाएगा क्योंकि इससे सरकारी नीतियों के साथ नौकरशाही अधिकारियों की अवज्ञा होगी। इस प्रकार, यह सरकार के उद्देश्यों के साथ नौकरशाही प्राधिकरण की अस्वीकृति की ओर ले जाएगा। सामाजिक कल्याण को इस प्रकार किसी चीज़ के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है; यदि स्वायत्त एजेंसियां होंगी तो इससे प्रशासन और अधिक कुशल होगा।
(ग) लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधि का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है। इन निर्वाचित प्रतिनिधियों का मुख्य कार्य कानून बनाना, उन्हें लागू करना और प्रशासन को जवाबदेह रखना है। लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों को नीतियां बनाने का अधिकार होता है, लेकिन प्रशासन को उन नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करना होता है।
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना चाहिए। इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखिए।
आज भारत में दो प्रकार की कार्यपालिकायें हैं। जब चुनी हुई राजनीतिक अस्थाई कार्यपालिका व दूसरी निष्पक्ष, अराजनीतिक निश्चित योग्यता के आधार पर निश्चित विधि के द्वारा नियुक्त स्थाई कार्यपालिका जिसमें क्लर्क से लेकर मुख्य सचिव शामिल हैं राजनीतिक कार्यपालिका के सदस्य विधानपलिका, संसद या व्यवस्थापिका के सदस्य होते हैं। जिनका चुनाव मुख्य चुनाव आयोग के द्वारा किया जाता है इनकी एक निश्चित राजनीतिक सोच होती है जिसके आधार पर ये चुनाव जीतते हैं व उसी आधार पर नीति निर्माण करके उसे लागू करने का प्रयास करते हैं। दूसरी कार्यपालिका जिसको नौकरशाही कहते हैं।
अराजनीतिक रूप से अपने अनुभव व योग्यता के आधार पर कार्य करते हैं। स्थाई कार्यपालिका के सदस्यों का निश्चित योग्यता के आधार पर निश्चित विधि के द्वारा निष्पक्षता के आधार पर लम्बे आधार के समय के लिए नियुक्त किया जाता है केन्द्र में ये नियुक्तियॉं केन्द्रीय लोक सेवा आयोग करता है तथा प्रांत में राज्यों की अपनी राज्य लोक सेवा आयोग होते हैं। ये कर्मचारी निश्चित नियमों के आधार पर व निश्चित मापदंडों के आधार पर कार्य करते हैं। इस स्थिति में यह उचित नहीं होगा कि प्रशासनिक कर्मचारियों व अधिकारियों का चुनाव किया जाए क्योंकि सरकारी पदों पर कार्य करने के लिए निश्चित शैक्षणिक व तकनीकी योग्यताओं की आवश्यकता होती है।