एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 9 शांति
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 11 राजनीति विज्ञान अध्याय 9 शांति के प्रश्नों के उत्तर सीबीएसई तथा राजकीय बोर्ड सत्र 2024-25 के अनुसार संशोधित रूप में यहाँ दिए गए हैं। ग्यारहवीं कक्षा में राजनीति शास्त्र के राजनीतिक सिद्धांत के पाठ 9 के सभी सवाल जवाब सरल भाषा में अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर सही यहाँ से निशुल्क प्राप्त किए जा सकते हैं।
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और क्या मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
यदि लोग आज शांति का गुणगान करते हैं तो केवल इसलिए नहीं कि वे इसे एक अच्छा विचार मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने उचित ही टिप्पणी की है कि, “चूँकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के विचार भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।’’ इस तरह की कोशिशों के लिए करूणा जैसे अनेक पुरातन अध्यात्मिक सिद्धांत और ध्यान जैसी चिकित्सा पद्धतियां भी यह काम कर सकती हैं। अतः हम कह सकते हैं कि शांतिपूर्ण दुनिया के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है। शांति एक बार में हमेशा के लिए नहीं पाई जा सकती। हिंसा का आरंभ केवल मनुष्य के मस्तिष्क से ही नहीं होता बल्कि इसकी शुरूआत कुछ सामाजिक संरचनाओं में भी होती है। केवल मानव मस्तिष्क ही शांति को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक नहीं है क्योंकि आप इस समाज के नकारात्मक तत्वों को नियंत्रित नहीं कर सकते।
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालाँकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ़ हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए।
कई बार यह तर्क दिया जाता है कि प्रत्येक राज्य अपने को पूर्णतः तथा सर्वोच्च इकाई के रूप में देखता है। इससे अपने हितों को केवल अपने नज़रिए से देखने और हर हालत में अपने हितों को बचाने और बढ़ाने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। हिंसा एक बुराई है लेकिन कभी-कभी यह शांति लाने की लिए अपरिहार्य जरुरत जैसी होती है। हिंसा के शिकार हुए लोगों का मनोवैज्ञानिक नुकसान ऐसी शिकायतों को जन्म देता है जो पीढ़ियों तक बनी रहती है। आजकल प्रत्येक राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया। राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह सेना का प्रयोग अपने नागरिकों की रक्षा के लिए करेगा परंतु कई बार राज्यों में चल रहे विरोध को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। इसके उदाहरण निम्नलिखित हैं:
सविनय अवज्ञा आंदोलन : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान गांधी जी द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग एक प्रमुख उदाहरण है। गांधी जी ने न्याय को अपना आधार बनाया और विलायती शासकों के अंतःकरण को आवाज़ दी। जब उससे काम नहीं चला तो उन पर नैतिक और राजनैतिक दबाव बनाने के लिए उन्होंने जन-आंदोलन प्रारंभ किया।
मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में काले लोगों के साथ भेदभाव के खिलाफ़ 1960 में एक संघर्ष प्रारंभ किया।
कंबोडिया में खमेर रूस का शासन क्रांतिकारी हिंसा के नुकसानदेह हो जाने की प्रकृति का दिल दहलाने वाला बहुत ही खास उदाहरण है। यह शासन पॉल पॉट के नेतृत्व में हुई बगावत का नतीजा था, जिसमें उत्पीड़ित खेतिहरों की मुक्ति के लिए तत्पर साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की कोशिश की गई थी। इस आंदोलन में लगभग 17 लाख लोग मारे गए।
इसके अन्य उदाहरण हैं पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे राष्ट्र जिन्होंने सदैव जनता की आवाज को दबाया है। पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही बहुत ही स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।
यह म्यांमार जैसी निरंकुश सैनिक तानाशाही में सर्वाधिक स्पष्ट रूप से दिखता है।
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। हम इस कथन से सहमत हैं। शांति विकास के लिए अति आवश्यक है। प्रत्येक देश में यदि सभी नागरिकों को स्वतंत्रता प्राप्त होगी तो ही वे शांति से जी पाएंगे। यदि समानता प्रदान नहीं की गई तो इससे ईर्ष्या, द्वेष जैसे भाव उत्पन्न होंगे। न्याय बहुत ही आवश्यक है क्योंकि किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय होना अशांति को जन्म देता है। अतः स्पष्ट है कि एक ऐसे समाज का निर्माण हो जहाँ स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय का समन्वय हो।
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
हिंसा सामान्यतः समाज की बुनियादी संरचना में बसी हुई है। ऐसी प्रथाएँ जो जाति, वर्ग, रंग, लिंग के आधार पर असमानता की खाइयों को अधिक बढ़ा देती हैं। इन सभी कुप्रथाओं से शोषित वर्गों की ओर से कोई भी चुनौती मिलती है तो इससे भी हिंसा उत्पन्न हो सकती है। इस तरह की ‘संरचनात्मक हिंसा’ के बड़े दुष्परिणाम हो सकते हैं। शांति को प्राप्त करने में असफ़ल तरीकों के पश्चात् ही हिंसा का प्रयोग होना चाहिए तथा ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए कि हिंसा कम-से-कम हो। परंतु अच्छे उदेश्य के लिए भी हिंसा का सहारा लेना नुकसानदायक हो सकता है। कई बार स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप भीषण नरसंहार देखने को ही मिलता है। हिंसा भी शांति की खोज में अंतर्निहित विकट स्थिति का ही अंग है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण सविनय अवज्ञा आंदोलन है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान गांधी जी द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग एक प्रमुख उदाहरण है।
गांधी जी ने न्याय को अपना आधार बनाया और विलायती शासकों के अंतःकरण को आवाज़ दी। जब उससे काम नहीं चला तो उन पर नैतिक और राजनैतिक दबाव बनाने के लिए उन्होंने जनआंदोलन प्रारंभ किया जिसमें अनुचित कानूनों को अहिंसक रूप में खुलेआम तोड़ना शामिल था। उनसे ही प्रेरणा लेकर मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में काले लोगों के साथ भेदभाव के खिलाफ़ 1960 में एक संघर्ष प्रारंभ किया। हिंसा के कारण व्यक्ति कई मनौवेज्ञानिक तथा भौतिक नुकसानों से गुजरता है। हिंसा उनके अंदर कई शिकायतों को जन्म देती है और ये शिकायतें पीढ़ियों तक बनी रहती हैं। अतः उपर्युक्त वर्णन से कहा जा सकता है कि हिंसा के माधयम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता।
विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है, इनके बीच क्या अंतर है?
विश्व में शांति स्थापित करने के लिए अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाई गई हैं।
पहला दृष्टिकोण
इसके अनुसार सभी राष्ट्रों को शान्ति को केंद्रीय स्थान देना चाहिए, उनकी सम्प्रभुता का आदर करना तथा उनके मध्य
निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। उनके बीच गठबंधन को बनाए रखना।
दूसरा दृष्टिकोण
इसके अनुसार राष्ट्रों को गहराई तक आपसी प्रतियोगिता की प्रकृति को स्वीकार करना है परंतु यह सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर बल देता है। यह अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी को बढ़ावा देते हैं जो कि विश्व में शांति स्थापित करने में बहुत महत्वपूर्ण है। उदाहरण: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप आर्थिक एवं राजनीतिक एकीकरण की तरफ़ बढ़ता गया।
तीसरा दृष्टिकोण
तीसरी पद्धति राष्ट्र आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की गुजरती हुई अवस्था को मानती है। इस पद्धति के समर्थक
तर्क देते हैं कि वैश्वीकरण की चालू प्रक्रिया राष्ट्रों की पहले से ही घट गई प्रधानता को और अधिक नष्ट कर रही है जिसके
परिणामस्वरूप विश्व शांति स्थापित होने की परिस्थिति बन रही है।