हिंदी व्याकरण अध्याय 2 वर्ण विचार

हिंदी व्याकरण अध्याय 2 वर्ण विचार के बारे में विद्यार्थी यहाँ से अध्ययन कर सकते हैं। वर्ण विचार भाषा के मूलभूत ध्वनि इकाइयों (स्वर और व्यंजन) पर आधारित है, जो भाषा की नींव और संरचना निर्धारित करते हैं।

वर्ण विचार

वर्ण विचार व्याकरण के उस भाग को कहते हैं, जिसमें वर्णों के आकार, भेद, उच्चारण तथा उनके मेल से शब्द बनाने के नियमों का निरूपण होता है।
वर्ण
ध्वनियों के वे मौलिक और सूक्ष्मतम रूप जिन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता है, उन्हें वर्ण कहा जाता है। वर्ण के मौखिक रूप को ध्वनि एवं लिखित रूप को अक्षर कहते हैं। जैसे – क् , ख्, ग् , अ, ए इत्यादि।
उदाहरण:
निम्न उदाहरण से वर्ण क्या है को समझने का प्रयास करते हैं:
‘सबेरा हुआ’ इस वाक्य में दो शब्द हैं, ‘सबेरा’ और ‘हुआ’। ‘सबेरा’ शब्द में साधारण रूप से तीन ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं स, बे, रा। इन तीन ध्वनियों में से प्रत्येक ध्वनि के खंड हो सकते हैं, इसलिए वह मूल ध्वनि नहीं है। ‘स’ में दो ध्वनियाँ हैं, स् और अ तथा इनके कोई और खंड नहीं हो सकते इसलिए ‘स्’ और ‘अ’ मूल ध्वनि हैं। ये ही मूल ध्वनियाँ वर्ण कहलाती हैं। ‘सबेरा’ शब्द में स्, अ, ब, ए, र, आ, ये छह मूल ध्वनियाँ हैं।

वर्णमाला
किसी एक भाषा या अनेक भाषाओं को लिखने के लिए प्रयुक्त मानक प्रतीकों के क्रमबद्ध समूह को वर्णमाला (वर्णों की माला या समूह) कहते हैं। उदाहरण के लिए देवनागरी की वर्णमाला में अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ आदि।
वर्गों के समुदाय को वर्णमाला’ कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में 44 वर्ण हैं। इनके दो भेद हैं:
(1) स्वर
(2) व्यंजन

स्वर

स्वर उन ध्वनियों को कहते हैं जो बिना किसी अन्य वर्णों की सहायता के उच्चारित किये जाते हैं। स्वतंत्र रूप से बोले जाने वाले वर्ण,स्वर कहलाते हैं। हिन्दी भाषा में मूल रूप से ग्यारह स्वर होते हैं। ग्यारह स्वर के वर्ण : अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ए,ऐ,ओ,औ आदि।


स्वरों के प्रकार
स्वर के दो प्रकार होते है:
(i) मूल स्वर:– अ, इ, उ, ऋ
(ii) संयुक्त स्वर:- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)


मूल स्वर
जिन स्वरों की उत्पति किसे दूसरे स्वरों से नहीं होती हों, उन स्वरों को मूल स्वर कहते हैं। अ की उत्पत्ति किसी अन्य स्वर से नहीं हुई है। इसीलिए इसे मूल स्वर कहा जाता है।
टिप्पणी: मूल स्वरों को ह्रस्व स्वर भी कहा जाता है।


संयुक्त स्वर
वे स्वर जो दो या दो से अधिक स्वरों से मिलकर बनते हैं , संयुक्त स्वर कहलाते हैं । इनकी संख्या 5 होती है जो इस प्रकार है- ए, ऐ, ओ, औ, ऋ। उदाहरण – अ + आ = ए , अ + ए = ऐ , अ + उ = ओ , अ + ओ = औ इत्यादि।
टिप्पणी: संयुक्त स्वर को संधि स्वर या दीर्घ स्वर भी कहते हैं।

उच्चारण की दृष्टि से स्वर के भेद
1. ह्रस्व स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
2. दीर्घ स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ दीर्घ स्वर के उदाहरण है।
3. संयुक्त स्वर – दो भिन्न प्रकृति (विजातीय) स्वरों के मिलने से जो स्वर बनते है, उन्हें संयुक्त स्वर कहते है।
4. प्लुत स्वर – जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है। जैसे: ओउम

व्यंजन

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजन 33 हैं।
क, ख, ग, घ, ङ। च, छ, ज, झ, ञ।
ट, ठ, ड, ढ, ण। त, थ, द, ध, न।
प, फ, ब, भ, म।
य, र, ल, व, श, ष, स, ह।


इन व्यंजनों में उच्चारण की सुगमता के लिए ‘अ’ मिला दिया गया है। जब व्यंजनों में कोई स्वर नहीं मिला रहता तब उसका स्पष्ट उच्चारण दिखाने के लिए उनके नीचे एक तिरछी रेखा कर देते हैं जिसे हिंदी में हल कहते हैं; जैसे क्, थ्, म् इत्यादि।
व्यंजनों में दो वर्ण और हैं जो अनुस्वार और विसर्ग कहलाते हैं। अनुस्वार का चिह्न स्वर के ऊपर एक बिन्दी और विसर्ग का चिह्न स्वर के आगे दो बिन्दियाँ हैं। जैसे: अं, अः; व्यंजनों के समान इनके उच्चारण में भी स्वर की आवश्यकता होती है। पर इनमें और दूसरे व्यंजनों में यह अंतर है कि स्वर इनके पहले आता है और दूसरे व्यंजनों के पीछे; अ +, अं, अ, अ + :, अः, क् + अ = क, ख + अ = ख।
इनके अतिरिक्त वर्णमाला में व्यंजन और मिला दिए जाते हैं जैसे: क्ष, त्र, ज्ञ। ये संयुक्त व्यंजन हैं और इस प्रकार मिलकर बने हैं; क् +ष = क्ष, त् + र = त्र, ज + ञ = ज्ञ।

व्यंजन के भेद

हिंदी में व्यंजन के तीन भेद होते हैं:
1. स्पर्श व्यंजन
2. अंतस्थ व्यंजन
3. ऊष्म व्यंजन


स्पर्श व्यंजन
ऐसे वर्ण जिसे उच्चारण करते समय या बोलते समय जीभ मुंह से किसी न किसी अंग से स्पर्श होता हैं। उन वर्णों को विशेष रुप से स्पर्श व्यंजन कहा जाता हैं। इनकी संख्या 25 होती है।
हिंदी वर्णमाला में कुल पांच वर्ग होते है, जिन्हे स्पर्श व्यंजन में शामिल किया जाता हैं।
क-वर्ग – क, ख, ग, घ, ङ
च-वर्ग -च, छ, ज, झ, ञ
ट-वर्ग – ट, ठ, ड, ढ, ण
त-वर्ग – त, थ, द, ध, न
प-वर्ग प, फ, व, भ, म


अंतस्थ व्यंजन
अंत करण के माध्यम से उच्चारित होने वाले व्यंजनों को अंतस्थ व्यंजन कहा जाता है। अंतस्थ व्यंजन के उदाहरण- य’, ‘र’, ‘ल’ और ‘व’। अंतर शब्द के अर्थ अंदर का, बीच में स्थित, भीतर रहने वाला, भीतरी, अन्त:स्थ, मध्य में रहने वाला इत्यादि होते हैं।


ऊष्म व्यंजन
जिन वर्णों के उच्चारण में मुंह से विशेष प्रकार की गर्म वायु निकलती हैं। उन्हें उष्म व्यंजन कहते हैं। ‘श, ष, स, ह’ – इन चार वर्णों के उच्चारण में मुख से विशेष प्रकार की गर्म (ऊष्म) वायु निकलती है, इसलिए इन्हें ऊष्म व्यंजन कहते है।

स्वरों की मात्राएँ

व्यंजनों के अनेक उच्चारण दिखाने के लिए उनके साथ स्वर जोड़े जाते हैं। व्यंजनों में मिलने से बदलकर स्वर का जो रूप हो जाता है उसे मात्रा कहते हैं। प्रत्येक स्वर की मात्रा नीचे लिखी जाती है।
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ


व्यंजनों के साथ मिलकर स्वरों का मात्रा के रूप में विश्लेषण
विभिन्न स्वरों का व्यंजनों के साथ मेल से बनने वाली मात्रायें इस प्रकार हैं:
(क) अ की कोई मात्रा नहीं है। जब यह व्यंजन में मिलता है, तब व्यंजन में नीचे का चिह्न (हलन्त्) नहीं लिखा जाता; जैसे: क् + अ = क, ख् + अ = ख।
(ख) आ, ई, ओ और औ की मात्राएँ व्यंजन के आगे लगाई जाती हैं; जैसे: का, की, को, कौ। इ की मात्रा व्यंजन के पहले, ए और ऐ की मात्राएँ ऊपर; और उ, ऊ, ऋ की मात्राएँ नीचे लगाई जाती हैं; जैसे: कि, के, कै, कु, कू, कृ।
(ग) अनुस्वार स्वर के ऊपर और विसर्ग स्वर के पीछे आता है; जैसे: कं, किं, कः, काः।
(घ) उ और ऊ की मात्राएँ जब र् में मिलती हैं, तब उनका आकार कुछ निराला हो जाता है, जैसे: रु, रू। र के साथ ऋ की मात्रा का संयोग व्यंजनों के समान होता है; जैसे: र् + ऋ + ।
(त) ऋ की मात्रा को छोड़कर और अं, अः को लेकर व्यंजनों के साथ सब स्वरों में मिलाप को बारहखड़ी’ कहते हैं। स्वर अथवा स्वरांत व्यंजन अक्षर कहलाते हैं: क् की बारहखड़ी नीचे दी जाती है।
क, का, कि, की, कु, कू, के, के, को, कौ, कं, कः।

संधि

दो निर्दिष्ट अक्षरों के पास-पास आने के कारण उनके मेल से जो विकार होता है, उसे संधि कहते हैं। संधि और संयोग में यह अंतर है कि संयोग में अक्षर वैसे ही रहते हैं, परंतु संधि में उच्चारण के नियमानुसार दो अक्षरों के मेल में उनकी जगह कोई भिन्न अक्षर हो जाता है।


संधि के प्रकार
संधि तीन प्रकार की है:
(1) स्वर संधि
(2) व्यंजन संधि
(3) विसर्ग संधि


स्वर संधि
दो स्वरों के पास आने से जो संधि होती है उसे स्वर संधि कहते हैं, जैसे: राम + अवतार = राम् + अ + अवतार = राम् + अ + वतार = रामावतार।
यदि दो सवर्ण (सजातीय) स्वर पास-पास आवे तो दोनों के बदले सवर्ण दीर्घ स्वर होता है, जैसे:
(क) अ और आ की संधि
अ + अ = आ, कल्प + अंत = कल्पांत। परम + अर्थ = परमार्थ ।
अ + आ = आ, रत्न + आकर = रत्नाकर। कुश + आसन = कुशासन।
आ + अ = आ, रेखा + अंश = रेखांश। विद्या + अभ्यास = विद्याभ्यास।
आ + आ = आ, महा + आशय = महाशय । वार्ता + आलाप = वार्तालाप।
(ख) इ और ई की संधि
इ + इ = ई, गिरि + इंद्र = गिरींद्र। अभि + इष्ट = अभीष्ट।
इ + ई = ई, कवि + ईश्वर = कवीश्वर। कपि + ईश = कपीश।
ई + ई = ई, सती + ईश = सतीश। जानकी + ईश = जानकीश।
ई + इ = ई, मही + इंद्र = महींद्र। देवी + इच्छा = देवीच्छा।
(ग) उ, ऊ की संधि
उ + उ = ऊ, भानु + उदय = भानूदय। विधु + उदय = विधूदय।
उ + ऊ = ऊ, सिंधु + ऊर्मि = सिंधूमि। लघु + ऊर्मि = लघूर्मि।
ऊ + ऊ = ऊ, भू + ऊर्द्ध = भूर्द्ध। भू + ऊर्जित = भूर्जित।
ऊ + उ = ऊ, वधू + उत्सव = वधूत्सव। भू + उद्धार = भूद्धार।
(घ) ऋ, ऋ की संधि
ऋ, के संबंध में संस्कृत व्याकरण में बहुधा मातृ + ऋण = मातृण, यह उदाहरण दिया जाता है; पर इस उदाहरण में भी विकल्प से ‘मातृण’ रूप होता है। इससे प्रकट है कि दीर्घ ऋ की आवश्यकता नहीं है।

स्वर संधि के भेद

स्वर संधि के भी पाँच भेद होते हैं:
1. गुण संधि
2. वृद्धि संधि
3. यण संधि
4. दीर्घ संधि
5. अयादी संधि


गुण संधि
जब संधि करते समय (अ, आ) के साथ (इ, ई) हो तो ‘ए’ बनता है, जब (अ, आ) के साथ (उ, ऊ) हो तो ‘ओ’ बनता है, जब (अ, आ) के साथ (ऋ) हो तो ‘अर’ बनता है तो यह गुण संधि कहलाती है।
उदाहरण:
अ + इ = ए, देव + इंद्र = देवेंद्र। अ + ई = ए, सुर + ईश = सुरेश। आ + इ = ए, महा + इंद्र = महेंद्र। आ + ई = ए, रमा + ईश = रमेश। अ + उ = ओ, चंद्र + उदय = चंद्रोदय। अ + ऊ = ओ, समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि। आ + उ = ओ, महा + उत्सव = महोत्सव। आ + ऊ = ओ, महा + ऊरु = महोरु। अ + ऋ = अ, सप्त + ऋषि = सप्तर्षि। आ + ऋ = अर्, महा + ऋषि = महर्षि।


वृद्धि संधि
जब संधि करते समय जब अ , आ के साथ ए , ऐ हो तो ‘ ऐ ‘ बनता है और जब अ , आ के साथ ओ , औ हो तो ‘ औ ‘ बनता है। उसे वृद्धि संधि कहते हैं।
उदाहरण:
अ + ए = ऐएक + एक = एकैक। अ + ऐ = ऐमत + ऐक्य = मतैक्य। आ + ए = ऐसदा + एव = सदैव। आ + ऐ = ऐमहा + ऐश्वर्य = महैश्वर्य। अ + ओ = औजल + ओघ = जलौघ। आ + ओ = औमहा + ओज = महौज। अ + औ = औपरम + औषध = परमौषध । आ + औ = औमहा + औदार्य = महौदार्य।


यण संधि
जब संधि करते समय इ, ई के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘य’ बन जाता है, जब उ, ऊ के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘व्’ बन जाता है, जब ऋ के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘र’ बन जाता है।
उदाहरण:
इ + अ = य, यदि + अपि = यद्यपि। इ + आ = या, इति + आदि = इत्यादि। इ + उ = यु, प्रति + उपकार = प्रत्युपकार । इ + ऊ = यू, नि + ऊन = न्यून।


दीर्घ संधि
जब दो शब्दों की संधि करते समय (अ, आ) के साथ (अ, आ) हो तो ‘आ’ बनता है, जब (इ, ई) के साथ (इ, ई) हो तो ‘ई’ बनता है, जब (उ, ऊ) के साथ (उ, ऊ) हो तो ‘ऊ’ बनता है। इस संधि को हम ह्रस्व संधि भी कह सकते हैं।
उदाहरण:
विद्या + अभ्यास = विद्याभ्यास (आ + अ = आ)
परम + अर्थ = परमार्थ (अ + अ = आ)
कवि + ईश्वर = कवीश्वर (इ + ई = ई)
गिरि + ईश = गिरीश (इ + ई = ई)
योजन + अवधि = योजनावधि (अ + अ = आ)


अयादी संधि
जब ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’ और ‘औ’ के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ए’ का ‘अय्’, ‘ऐ’ का ‘आय्’, ‘ओ’ का ‘अव्’ और ‘औ’ का ‘आव्’ बन जाता है। अयादि संधि करते समय पहले शब्द के अन्तिम स्वर, तथा दूसरे शब्द के प्रथम स्वर में पूर्वकथित विकार आ जाते हैं जो उन स्वरों का स्थान ले लेते हैं।
उदाहरण:
श्री + अन = श्रवण, पौ + अक = पावक, पौ + अन = पावन, नै + अक = नायक

व्यंजन संधि

जिन दो वर्गों में संधि होती है उनमें से पहला वर्ण व्यंजन हो और दूसरा वर्ण चाहे स्वर हो चाहे व्यंजन, तो उनकी संधि को व्यंजन संधि कहते हैं।
उदाहरण: जगत् + ईश = जगदीश, जगत् + नाथ = जगन्नाथ।
अघोष और घोष (सघोष) वर्ण
देवनागरी के हर नियमित वर्ग में पहले दो वर्ण अघोष और उन के बाद के तीसरा, चौथा, पांचवां वर्ण सघोष होते हैं। क/ख, च/छ, त/थ, ट/ठ, प/फ अघोष हैं, जबकि ग/घ, ज/झ, द/ध, ड/ढ, ब/भ घोष हैं।
व्यंजन संधि संबंधी कुछ नियम निम्नलिखित हैं:
1. यदि क्, च्, ट्, प् के आगे अनुनासिक को छोड़कर कोई घोष वर्ण हो तो उसके स्थान में क्रम से वर्ग का तीसरा अक्षर हो जाता है।
उदाहरण:
दिक् + गज = दिग्गज
वाक् + ईश = वागीश
षट् + रिपु = षड्रिपु
षट् + आनन = षडानन
2. किसी वर्ग के प्रथम अक्षर के अतिरिक्त कोई अनुनासिक वर्ण हो तो प्रथम वर्ण के बदले उसी वर्ग का अनुनासिक वर्ण हो जाता है।
उदाहरण:
वाक् + मय = वाङ्मय
षट् + मास = षण्मास
अप् + मय = अम्मय
जगत् + नाथ = जगन्नाथ
3. यदि त के आगे कोई स्वर, ग, घ, द, ध, ब, भ अथवा य, र, व रहे तो त् के स्थान में द् हो जाता है।
उदाहरण:
सत् + आनंद = सदानंद
जगत् + ईश = जगदीश
उत् + गम = उद्गम
सत् + धर्म = सद्धर्म
भगवत् + भक्ति = भगवद्भक्ति
तत् + रूप = तद्रूप
4. यदि त् या द् के आगे च या छ हो तो त् या द् के स्थान पर च हो जाता है। ज झ हो तो ज्; ट वा ठ हो तो ट्; ड वा ढ हो तो ड्; और ल हो तो ल हो जाता है।
उदाहरण:
उत् + चारण = उच्चारण
शरत् + चन्द्र = शरच्चंद्र
महत् + छत्र = महच्छत्र
सत् + जन = सज्जन
विपद् + जाल = विपज्जाल
तत् + लीन = तल्लीन
5. यदि त् या द् के आगे श हो तो त् एवं द् के बदले च और श के बदले छ हो जाता है। और त् या द् के आगे ह हो तो त् या द् के स्थान में द् और ह के स्थान में ध हो जाता है।
उदाहरण:
सत् + शास्त्र = सच्छास्त्र
उत् + हार = उद्धार
6. यदि छ के पूर्व स्वर हो तो छ के बदले च्छ होता है।
उदाहरण:
आ + छादन = आच्छादन
परि + छेद = परिच्छेद
7. यदि म् के आगे स्पर्श वर्ण हो तो म् के बदले अनुस्वार अथवा उसी वर्ग का अनुनासिक वर्ण आता है।
उदहारण:
सम् + कल्प = संकल्प
किम् + चित् = किंचित्
सम् + तोष = संतोष
सम् + पूर्ण = संपूर्ण

8. यदि म् के आगे अंतस्थ या ऊष्म वर्ण हो तो म् अनुस्वार में बदल जाता है।
उदाहरण:
किम् + वा = किंवा
सम् + हार = संहार
सम् + योग = संयोग
सम् + वाद = संवाद
9. यदि ऋ, र या ष के आगे ‘न’ हो और इनके बीच में चाहे स्वर, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार, य, व, ह आवे तो न का ण हो जाता है।
उदाहरण:
भर् + अन = भरण
भूष् + अन = भूषण
प्र + मान = प्रमाण
राम + अयन = रामायण
10. यदि किसी शब्द के दन्त स के पूर्व अ, आ को छोड़ कोई स्वर आवे तो स के स्थान पर ष होता है।
उदाहरण:
अभि + सेक = अभिषेक
नि + सिद्ध = निषिद्ध
वि + सम = विषम
सु + सुप्ति = सुषुप्ति
11. यौगिक शब्दों में यदि प्रथम शब्द के अंत में न हो तो उसका लोप होता है।
उदाहरण:
राजन् + आज्ञा = राजाज्ञा
हस्तिन् + दंत = हस्तिदंत
प्राणिन् + मात्र = प्राणिमात्र
धनिन् + त्व = धनित्व

विसर्ग संधि

विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन की संधि को विसर्ग संधि कहते हैं।
उदाहरण:
तपः + वन = तपोवन
निः + अंतर = निरंतर
विसर्ग संधि संबंधी कुछ नियम निम्नलिखित हैं:
1. यदि विसर्ग के आगे च या छ हो तो विसर्ग का श् हो जाता है, ट या ठ हो तो ष् और त या थ हो तो स् हो जाता है।
उदाहरण:
निः + चल = निश्चल
धनुः + टंकार = धनुष्टंकार
निः + छिद्र = निश्छिद्र
मनः + ताप = मनस्ताप
2. यदि विसर्ग के पश्चात् श, ष, या स आयेगा तो विसर्ग उसी प्रकार रहता है।
उदाहरण:
दुः + शासन = दुःशासन
निः + संदेह = निःसंदेह
3. यदि विसर्ग के आगे क, ख, या प, फ आते हैं तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता।
उदाहरण:
रजः + कण = रजःकण
पय + पान = पयःपान
4. यदि विसर्ग के पूर्व इ या उ है तो क, ख या प, फ के पहले विसर्ग के बदले ष् हो जाता है।
उदाहरण:
निः + कपट = निष्कपट
दु: + कर्म = दुष्कर्म
निः + फल = निष्फल
5. यदि विसर्ग के पूर्व अ है और आगे घोष व्यंजन है तो अ और विसर्ग (अः) के बदले ओ हो जाता है।
उदाहरण:
अधः + गति = अधोगति
मनः + योग = मनोयोग
तेजः + राशि = तेजोराशि
वयः + वृद्ध = वयोवृद्ध

6. यदि विसर्ग के पहले अ, आ को छोड़कर और कोई स्वर है और आगे कोई घोष वर्ण है, तो विसर्ग के स्थान पर र् होता है।
उदाहरण:
निः + आशा = निराशा
दुः + उपयोग = दुरुपयोग
निः + गुण = निर्गुण
बहि + मुख = बहिर्मुख
7. यदि र के आगे अ है तो र् का लोप हो जाता है और उसके पूर्व का ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है।
उदाहरण:
निः + रस = नीरस
निः + रोग = नीरोग
पुनर् + रचना = पुनर्रचना