हिंदी व्याकरण अध्याय 15 रस तथा उनके प्रकार

हिंदी व्याकरण अध्याय 15 रस तथा उनके प्रकार के बारे में यहाँ उदाहरण सहित प्रश्न और उत्तर दिए गए हैं। रस साहित्य में भावों और अनुभूतियों का वह सूक्ष्म और गहन अभिव्यक्ति है जो पाठक या श्रोता को साहित्यिक कृति से जोड़ता है।

हिंदी व्याकरण – रस तथा उनके प्रकार

विद्वानों के अनुसार रस शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्भ में इसका अर्थ अलग-अलग होता है। पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में होता है, भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है।
रस की परिभाषा
रस का शाब्दिक अर्थ “आनंद” होता है। कविता को पढ़ने अथवा नाटक को देखने में जो आनंद की अनुभूति होती है, उसे ही ‘रस’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में- रस काव्य का मूल आधार प्राणतत्व अथवा आत्मा है। रस का संबंध सृ धातु से माना गया है। जिसका अर्थ है: जो बहता है, अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है उसीको रस कहते हैं।
टिप्पणी: आचार्य विश्वनाथ के अनुसार– ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ अर्थात् रसात्मक वाक्य ही काव्य होता है।

रस के अंग

रस के मुख्य रुप से चार अंग माने जाते हैं, जो निम्न प्रकार हैं:
1. स्थायी भाव
2. विभाव
3. अनुभाव
4. संचारी भाव
स्थायी भाव
रस रूप में परिणत होने वाला तथा मनुष्य के हृदय में जो भाव स्थायी रूप से विधमान रहते हैं, उन्हें ‘स्थायी भाव’ कहते हैं। जब स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से होता है तो वह रस रूप में व्यक्त हो जाते हैं। अतः यही भाव रसत्व को प्राप्त होते हैं।


स्थायी भाव के भेद
प्राचीन आचार्यों ने स्थायी भाव की संख्या नौ (9) मानी है, उसी के आधार पर नौ रस माने जाते हैं। परवर्ती काल के आचार्यों ने दो और भावों “वात्सल्य” व “भगवत् विषयक रति” को स्थायी भाव की मान्यता दी। अतः इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या बढ़कर ग्यारह (11) हो जाती है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव भी रति होता है जब रति बालक के प्रति होती है, तो वात्सल्य रस होता है। और जब रति भगवान के प्रति होती है तो भक्ति रस उत्पन्न होता है।

विभाव

जो कारण हृदय में स्थित स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करें अर्थात् रसानुभूति के कारण को विभाव कहते हैं। भावों का विभाव करने वाले अथवा उन्हें आस्वाद योग्य बनाने वाले कारण विभाव कहलाते हैं।
विभाव के दो भेद हैं:
(i) आलंबन विभाव
(ii) उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव
आलंबन का अर्थ है आधार या आश्रय अर्थात जिस व्यक्ति या वस्तु का आधार लेकर स्थाई भावों की जागृति होती है उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार काव्य या नाट्य में वर्णित नायक-नायिका आदि पात्रों को आलम्बन विभाव कहते हैं।
उद्दीपन विभाव
स्थायी भाव को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले कारक उद्दीपन विभाव होते हैं।
उदाहरण:
किसी नाटक में नायक-नायिका का रूप सौन्दर्य, पात्रों की चेष्टाएँ, ऋतु, उद्यान, चाँदनी, देश-काल आदि उद्दीपन विभाव होते हैं।
उद्दीपन विभाव को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) विषयनिष्ठ उद्दीपन विभाव
(ii) बाह्य उद्दीपन विभाव।
पात्रों की शारीरिक चेष्टाएँ, हाव-भाव विषयनिष्ठ उद्दीपन विभाव तथा प्राकृतिक वातावरण, देशकाल आदि बाह्य उद्दीपन विभाव होते हैं।

अनुभाव

भावों का बोध कराने वाला अनुभाव होता है। रसानुभूति में विभाव कारण रूप हैं तो अनुभाव कार्य रूप होते हैं। अनुभव कराने के कारण ही ये अनुभाव कहलाते हैं।
उदाहरण:
श्रृंगार रस के अंतर्गत- नायिका के कटाक्ष, वेशभूषा या कामोद्दीपन अंग संचालन आदि।
परवर्ती आचार्यों के अनुसार अनुभावों की संख्या चार कही गई है:
(i) सात्विक
(ii) कायिक
(iii) वाचिक
(iv) आहार्य


सात्विक अनुभाव
ये अन्तःकरण की वास्तविक दशा के प्रकाशक होते हैं। सत्व से उत्पन्न होने के कारण इन्हें सात्विक कहा जाता है।
कायिक अनुभाव
शरीर की चेष्टाओं से व्यक्त कार्य, जैसे-भू्र संचालन, आलिंगन, कटाक्षपात, चुम्बन आदि आंगिक अनुभाव होते हैं।
वाचिक अनुभाव
वाणी के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति इसमें होती है, इसे ’मानसिक’ अनुभाव भी कहा गया है।
आहार्य अनुभाव
मन के भावों के अनुसार अलग-अलग वेशभूषा, अलंकरण आदि को आहार्य अनुभाव कहते हैं।


संचारी भाव
स्थायी भावों के साथ संचरण करने वाले भाव, ‘संचारी भाव’ कहलाते है। इससे स्थायी भाव की पुष्टि होती है। इनके द्वारा स्थायी भाव और तीव्र हो जाता है। संचारी भाव अस्थिर भाव हैं। ये परिस्थिति अनुसार उत्पन्न होते हैं और मिटते रहते हैं। संचारी भावों की संख्या तैंतीस मानी जाती है- हर्ष, विषाद, त्रास, लज्जा, ग्लानि, चिन्ता, शंका, असूया, अमर्ष, मोह, गर्व, उत्सुकता, उग्रता, चपलता, दीनता, जड़ता, आवेग, निर्वेद, धृति, मति, विबोध, वितर्क, श्रम, आलस्य, निद्रा, स्वप्न, स्मृति, मद, उन्माद, अवहित्था, अपस्मार, व्याधि, मरण।

रस के भेद

आचार्य भरतमुनि ने नाटकीय महत्त्व को ध्यान में रखते हुए आठ रसों का उल्लेख किया-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स एवं अद्भुत।
शृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानकाः।
वीभत्साद्भुतसंज्ञो चेच्छान्तोξपि नवमो रसः।
आचार्य मम्मट और पण्डितराज जगन्नाथ ने रसों की संख्या नौ मानी है- श्रृंगार, हास, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त। आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य को दसवाँ रस माना है तथा महाकवि सूरदास एवं रूपगोस्वामी ने ‘मधुर’ नामक ग्यारहवें रस की स्थापना की, जिसे भक्ति रस के रूप में मान्यता मिली। प्रेयान नामक रस के प्रतिष्ठापक – रुद्रट इस प्रकार रसों की कुल संख्या बारह हो गई। निम्नलिखित सारणी में रस तथा उनके स्थाई भाव दिए गए हैं:

रसस्थायी भाव
शृंगाररति
हास्यहास
करुणशोक
रौद्रक्रोध
वीरउत्साह
भयानकभय
वीभत्सजुगुप्सा
अद्भुतविस्मय
शांतनिर्वेद
वात्सल्यवत्सलता
भक्ति ईश्वरविषयक रति

रस की विशेषताएं
(क) रस स्वप्रकाशानन्द तथा ज्ञान से भरा हुआ है।
(ख) भाव सुखात्मक दुखात्मक होते हैं, किन्तु जब वे रस रूप में बदल जाते हैं तब आनन्दस्वरूप हो जाते हैं।
(ग) रस अखण्ड होता है।
(घ) रस न सविकल्पक ज्ञान है, न निर्विकल्पक ज्ञान, अतः अलौकिक है।
(ङ) रस वेद्यान्तर सम्पर्क शून्य है अर्थात् रसास्वादकाल में सामाजिक पूर्णतः तन्मय रहता है।

श्रृंगार रस

श्रृंगार रस को रसों का राजा एवं महत्वपूर्ण प्रथम रस माना गया है। जब विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रति स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है, तो उसे शृंगार रस कहते है। इसमें सुख व दुःख दोनों प्रकार की अनुभूतियां होती है।
भावों के आधार पर शृंगार रस को निम्न प्रकार से वर्णित कर सकते हैं:
शृंगार का आलंबन विभाव नायक-नायिका या प्रेमी-प्रेमिका हैं।
उद्दीपन विभाव- नायक-नायिका की परस्पर चेष्टाएं, उद्यान, लता कुंज आदि हैं।
अनुभाव- अनुराग पूर्वक स्पष्ट अवलोकन, आलिंगन, रोमांच, स्वेद आदि है।
संचारी भाव- उग्रता, मरण और जुगुप्सा को छोड़कर अन्य सभी संचारी भाव श्रृंगार के अंतर्गत आते हैं।
इसीके आधार पर श्रृंगार रस के दो भाग हैं:
(i) संयोग शृंगार
(ii) वियोग शृंगार


संयोग शृंगार
संयोग शृंगार के अंतर्गत नायक-नायिका के परस्पर मिलन प्रेमपूर्ण कार्यकलाप एवं सुखद अनुभूतियों का वर्णन होता है।
उदाहरण:
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनु हंसे देन कहै नटि जाय।।
उपरोक्त छंद में बिहारी जी वर्णन करते हैं कि गोपियाँ कृष्ण से बातें करने के लिए अधीर रहती हैं और वे कृष्ण की बांसुरी को छुपा देती हैं। ताकि इसी बहाने कृष्ण से बातों का आनंद लिया जा सके। जब कृष्ण गोपियों से मुरली के बारे में पूछते हैं तो वे सौगंध खाकर कहती हैं कि उन्हें कुछ पता नहीं है। साथ ही भौहों के इशारे से मुस्कराती भी जाती हैं जिससे कृष्ण को लगता है कि बंशी इन्ही के पास है। जब वह लौटाने को कहता है तो वे साफ़ मना कर देती हैं।
उपरोक्त छंद में प्रेमपूर्वक मिलन की चेष्टाओं का वर्णन है अतः यहाँ संयोग शृंगार रस है।


वियोग शृंगार
जब प्रेमी-प्रेमिका के बिछड़ने के वियोग की अवस्था में उनके प्रेम का वर्णन होता है, तो वह वियोग शृंगार कहलाता है। इसके अंतर्गत विरह से व्यथित नायक-नायिका के मनोभावों को व्यक्त किया जाता है।
उदाहरण:
मधुबन तुम कत रहत हरे
विरह वियोग श्याम-सुंदर के
ठाड़े क्यों न जरें।
प्रस्तुत अंश में सूरदास जी ने कृष्ण के वियोग में राधा के मनोभावों एवं दुखों का वर्णन किया है। राधारानी मधुबन के वृक्षों से कहती है कि तुम अभी तक हरे-भरे कैसे हो। कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े जलकर राख क्यों नहीं हो गए हो। यहाँ राधारानी और कृष्ण के वियोग को दर्शाया गया है अतः यहां वियोग शृंगार है।

हास्य रस
किसी भी भिन्न वस्तु, व्यक्ति, वेशभूषा, असंगत क्रियाओं, व्यापारों, व्यवहारों, विचारों व आकृति को देखकर जिस विनोद भाव का संचार होता है, उसे हास्य रस कहते है।
बिहसि लखन बोले मृदु बानी, अहो मुनीसु महाभर यानी।
पुनि पुनि मोहि देखात कुहारु, चाहत उड़ावन कुंकी पहारू।।
इस छंद में परशुराम के हाव-भाव देखकर लक्ष्मण उसकी हंसी उड़ाते हुए कहते हैं कि यह कुल्हाड़ी दिखाकर तुम मुझे ऐसे डरा रहे जैसे कि फूंक से पहाड़ को उड़ाना चाह रहे हो।

करुण रस

जहां किसी हानि के कारण शोक भाव उपस्थित होता है , वहां करुण रस उत्पन्न होता है। अर्थात् अनिष्ट की प्राप्ति, इष्ट वस्तु एवं वैभव का नाश, प्रेम पात्र का चिर वियोग, प्रियजन की पीड़ा अथवा मृत्यु होना पाया जाता है, वहाँ करुण रस होता है।
शास्त्र के अनुसार ‘शोक’ नामक स्थायी भाव अपने अनुकूल विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है तब उसे करुण रस कहा जाता है।
उदाहरण:
मात को मोह, ना द्रोह’ विमात को सोच न तात’ के गात दहे’ को,
प्रान को छोभ न बंधु बिछोभ न राज को लोभ न मोद रहे’ को।
एते पै नेक न मानत ‘श्रीपति’ एते मैं सीय वियोग सहे को,
तारन – भूमि” मैं राम कह्यो, मोहि सोच विभीषन भूप कहे को।।
जब लक्ष्मण को शक्ति बाण लगा तो लक्षण मूर्छित होकर धरती पर पड़े हुए हैं और राम लक्षण का सिर गोद में लेकर राम विलाप करते हुए कहते हैं। राम के विलाप करने में ‘शोक’ स्थाई भाव है। लक्ष्मण आलम्बन है। राम लक्ष्मण के लिए विलाप करते है। इसमें राम का विलाप अनुभाव है।

रौद्र रस

रौद्र रस का स्थाई भाव ‘क्रोध’ है। किसी भी विरोधी द्वारा किसी धर्म, व्यक्ति व देश का अपमान करने से उसकी प्रतिक्रिया से जो क्रोध उत्पन्न होता है, वही रौद्र रस कहलाता है। वस्तुतः जहां विरोध, अपमान या उपकार के कारण प्रतिशोध की भावना क्रोध उपजती है वही रौद्र रस साकार होता है।
उदाहरण:
तुमने धनुष तोड़ा शशिशेखर का,
मेरे नेत्र देखो,
इनकी आग में डूब जाओेगे सवंश राघव।
गर्व छोड़ो
काटकर समर्पित कर दो अपने हाथ।
मेरे नेत्र देखो।
यहाँ स्थायी भाव क्रोध, आश्रय लक्ष्मण, आलम्बन जनक के वचन उद्दीपन जनक के वचनों की कठोरता ,अनुभाव भौंहें तिरछी होना, होंठ फड़कना, नेत्रों का रिसौहैं होना संचारी भाव अमर्ष-उग्रता, कम्प आदि हैं, अत: यहाँ रौद्र रस है।

वीर रस

युद्ध अथवा किसी भी कठिन कार्य को करने के लिए ह्रदय में निहित उत्साह स्थायी भाव के जागृत होने के प्रभाव स्वरूप जो भाव उत्पन्न होते है, उसे वीर रस कहते है।
दूसरे शब्दों में- वीर रस के अंतर्गत उत्साह का संचार किया जाता है, किंतु इसमें प्रधानतया रण-पराक्रम का ही वर्णन किया जाता है। सहृदय के हृदय में विद्यमान उत्साह नामक स्थाई भाव अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तब उसे वीर रस कहा जाता है।
उदाहरण:
हे सारथे है द्रौण क्या, देवेंद्र भी आकर अड़े।
है खैल क्षत्रिय बालकों का, व्यूह भेदन कर लड़े।
मैं सत्य कहता हूं सखे, सुकुमार मत जानो मुझे
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा मानो मुझे
है औरों की बात क्या, गर्व में करता नहीं,
मामा और निज तात से भी, समर में डरता नहीं।।
उपरोक्त पंक्तियों में अभिमन्यु वीर रस में उत्साहित होकर चक्रव्यूह को भेदन की बात कहता है तथा कहता है कि द्रोणाचार्य तो क्या इंद्र, यमराज आदि से भी युद्ध करने से पीछे नहीं हटूंगा। इससे आगे वह कहता है कि औरों की तो बात क्या मैं अपने मामा तथा पिता से भी युद्धभूमि में नहीं डरता हूँ।

भयानक रस
डरावने दृश्यों को देखकर मन में भय उत्पन्न होता है। जब भय नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव व संचारी भाव से होता है, तो भयानक रस उत्पन्न होता है।
इसका आलंबन भयावह या जंगली जानवर अथवा बलवान शत्रु है। निस्सहाय और निर्बल होना शत्रुओं या हिंसक जीवो की चेष्टाएं उद्दीपन है स्वेद, कंपन, रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं। जबकि संचारी भावों के अंतर्गत प्रश्न, ग्लानि, दयनीय दशा, शंका, चिंता, आवेश आदि आते हैं।
उदाहरण:
एक और अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय।
विकल बटोही बीच ही, परयो मूर्छा खाए।।
उपरोक्त छंद में एक पथिक के एक ओर अजगर है तथा दूसरी तरफ शेर खड़ा है। इस भयानक दृश्य को देखकर पथिक भय के मारे मूर्छित हो गया है।

वीभत्स रस

वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है। गंदी और घृणित वस्तुओं के वर्णन से जब घृणा भाव पुष्ट होता है, तो वीभत्स रस उत्पन्न होता है।
घृणास्पद व्यक्ति या वस्तुएं इसका आलंबन है। घृणित चेष्टाएं एवं ऐसी वस्तुओं की स्मृति उद्दीपन विभाव है। झुकना, मुंह फेरना, आंखें मूंद लेना इसके अनुभाव हैं, जबकि इसके अंतर्गत मोह, अपस्मार, आवेद, व्याधि, मरण, मूर्छा आदि संचारी भाव है।
उदाहरण:
रक्त-मांस के सड़े पंक से उमड़ रही है, महाघोर दुर्गन्ध, रुद्ध हो उठती श्वास।
तैर रहे गल अस्थि-खण्डशत, रुण्डमुण्डहत, कुत्सित कृमि संकुल कर्दम में महानाश के॥
इन पंक्तियों में जानवरों के सड़े-गले शवों के वीभत्स दृश्य को देखकर मन घृणा से भर उठता है।

अद्भुत रस
ऐसा कार्य, वस्तु, व्यक्ति अथवा स्थान को देखकरअगर मन विस्मित या आश्चर्यचकित होता है, तब वहाँ अद्भुत रस उत्पन्न होता है। विस्मय भाव अपने अनुकूल आलंबन, उद्दीपन, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग पाकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है। इसका आलंबन आलौकिक या विचित्र वस्तु या व्यक्ति है।
उदाहरण:
अखिल भुवन चर-अचर जग, हरिमुख में लखि मातु।
चकित भयी, गदगद वचन, विकसित दृग, पुलकातु।।
प्रस्तुत अंश में माता यशोदा का कृष्ण के मुख में ब्रह्मांड दर्शन से उत्पन्न विषय के भाव को प्रस्तुत किया गया है। यह असंभव से लगने वाले भाव को उत्पन्न करता है।
आलंबन की अद्भुत विशेषताएं एवं उसका श्रवण- वर्णन उद्दीपन है। इससे स्तंभ स्वेद, रोमांच, आश्चर्यजनक भाव, अनुभाव उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त वितर्क, आवेश, हर्ष, स्मृति, मति, त्रासदी संचारी भाव हैं।

शांत रस

भौतिक संसार और जीवन की नश्वरता का बोध होने से चित्त में एक प्रकार का वैराग्य उत्पन्न होता है परिणामत: मनुष्य धन, एश्वर्य, सगे-सम्बन्धियों, भोग-विलास की वस्तुओं के प्रति उदासीन हो जाता है, इसी को निर्वेद या शम कहते हैं। जो विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत हो जाता है।
दूसरे शब्दों में- तत्वज्ञान और वैराग्य से शांत रस की उत्पत्ति मानी गई है, इसका स्थाई भाव निर्वेद या शम है। जो अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयुक्त होकर आस्वाद का रूप धारण करके शांत रस रूप में परिणत हो जाता है। संसार की क्षणभंगुरता कालचक्र की प्रबलता आदि इसके आलंबन है।
उदाहरण:
मन पछितैही अवसर बीते
दुरलभ देह पाइ हरिपद भुज, करम वचन भरु हिते।
सहसबाहु दस बदन आदि नृप, बचे न काल बलिते।।
उपरोक्त छंद में तुलसीदास ने संसार का सत्य बताया गया है कि समय चुकने के बाद मन पछताता है। अतः मन को सही समय पर सही क्रम के लिए प्रेरित करना चाहिए।
संसार के प्रति मन न लगना उचाटन का भाव या चेष्टाएं अनुभाव है जबकि धृति, मति, विबोध, चिंता आदि इसके संचारी भाव है।

वात्सल्य रस
वात्सल्य का संबंध छोटे बच्चों के प्रति उनके माता-पिता तथा सगे-संबंधियों के प्रेम एवं ममता के भाव से है। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वात्सल्यता एवं प्रेम है। वत्सल नामक भाव जब अपने अनुरूप विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से युक्त होकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है, तब वह वत्सल रस में परिणत हो जाता है। माता-पिता एवं संतान इसके आलंबन है। माता-पिता संतान के मध्य क्रियाकलाप उद्दीपन है। आश्रय की चेष्टाएं प्रसन्नता का भाव आदि अनुभाव है। जबकि हर्ष, गर्व आदि संचारी भाव हैं।
उदाहरण:
जसोदा हरि पालने झुलावै
हलरावै दुलराय मल्हावै जोइ सोई कछु गावै।
मेरे लाल को आओ निन्दरिया काहे न आनि सुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूंद लेत कबहुँ अधर फरकावै।।
सूरदास रचित इन पदों में माता यशोदा श्रीकृष्ण को सुलाने लिए पालने में सुलाने के लिए अनेक प्रकार से लाड-दुलार कर रही हैं।

भक्ति रस

भक्ति रस का स्थायी भाव दास्य है। भक्ति रस शांत रस से अलग होता है। इसमें भी प्रेम का परिपाक होता है। लेकिन, यहाँ रति भाव अपने इष्ट के प्रति होता है। इस रस में प्रभु की भक्ति और उनके गुणगान को देखा जा सकता है।
उदाहरण:
बसौ मेरे नैनन में नन्दलाल।
मोहनी मूरत सांवरी सूरत, नैना बने विसाल।
अधर सुधारस मुरली राजत, उर वैजयन्ती माल।
यहाँ स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति, आलम्बन श्रीकृष्ण उद्दीपन कृष्ण लीलाएँ, सत्संग, अनुभाव-रोमांच, अश्रु, प्रलय, संचारी भाव हर्ष, गर्व, निर्वेद, औत्सुक्य आदि हैं, अत: यहाँ भक्ति रस है।
उपरोक्त पंक्तियों में कृष्ण के प्रेम और भक्ति में दीवानी मीरा कहती है कि नन्दजी को आनन्दित करने वाले हे श्रीकृष्ण! आप मेरे नेत्रों में निवास कीजिए। आपका सौन्दर्य अत्यन्त आकर्षक है। आपके सिर पर मोर के पंखों में निर्मित मुकुट एवं कानों में मकराकृत कुण्डल सुशोभित हो रहे हैं।

रसों में पारस्परिक सम्बंध
किसी भी काव्य में एक साथ बहुत सारे रस हो सकते हैं। इनमें से एक मुख्य होता है बाकि गौण रस होते हैं। जो रस परस्पर अनुकूल होते हैं वही एक साथ आते हैं।
कुछ रसों का परस्पर विरोध होता है। यदि किसी रचना में प्रतिकूल रस एक साथ आते हैं तो वहाँ रस दोष उत्पन्न होता है।