हिंदी व्याकरण अध्याय 1 भाषा, लिपि और व्याकरण
हिंदी व्याकरण अध्याय 1 भाषा, लिपि और व्याकरण तथा उससे संबंधित सभी आयाम और उनके उदाहरण छात्र यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं। विद्यार्थी यहाँ भाषा तथा लिपि के बारे में विस्तार से सभी कक्षाओं के लिए अध्ययन कर सकते हैं। भाषा मानव संवाद का मुख्य साधन है, जिसमें विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान होता है। यह सांस्कृतिक पहचान और अभिव्यक्ति का माध्यम है।
हिंदी व्याकरण – भाषा, लिपि और व्याकरण
भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्पष्टतया समझ सकता है।
जगत् का अधिकांश व्यवहार, बोलचाल अथवा लिखने और पढ़ने से चलता है, इसलिए भाषा जगत् के व्यवहार का मूल है।
भाषा के प्रकार
1. मौखिक भाषा
2. लिखित भाषा
मौखिक भाषा
भाषा का वह रूप जिसमें व्यक्ति अपने विचरों को बोलकर प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति सुनकर उसे समझता है। मौखिक भाषा कहलाती है।
मौखिक भाषा को भी पुनः दो भागों में बाँट सकते हैं:
(i) सांकेतिक भाषा या अव्यक्त भाषा
(ii) स्पष्ट भाषा या व्यक्त भाषा
सांकेतिक भाषा
सांकेतिक भाषा वह भाषा है, जिसमें किसी चीज को समझाने के लिए विभिन्न प्रकार के हाथों का सहारा, उंगलियों का सहारा, अपने चेहरे के हाव-भाव, किस चीज को देखकर समझाना यह सभी सांकेतिक भाषा के अंतर्गत आता है।
उदाहरण: बहरे और गूंगे मनुष्य अपने विचार संकेतों से प्रकट करते हैं। बच्चा केवल रोकर अपनी इच्छा जनाता है। ट्रैफिक पुलिस हाथों के इशारे से यातायात को नियंत्रित करता है। कभी-कभी केवल मुख की चेष्टा से मनुष्य के विचार प्रकट हो जाते हैं। पशु-पक्षी आदि जो बोली बोलते हैं, उससे दुःख, सुख आदि मनोविकारों के सिवा और कोई बात नहीं जानी जाती।
स्पष्ट भाषा या व्यक्त भाषा
जब भावाभिव्यक्ति पूर्ण स्पष्ट हो, तो ऐसी व्यक्त भाषा को स्पष्ट कहते हैं। जब मनुष्य मुख अवयवों के माध्यम से अर्थमयी या यादृच्छिक ध्वनि-समष्टि का प्रयोग करता है, तो ऐसी भाषा का रूप सामने आता है। यह भाषा मानव-व्यवहार और उसकी उन्नति में सर्वाधिक सहयोगी है।
मनुष्य की भाषा से उसके सब विचार भली-भाँति प्रकट होते हैं, इसलिए वह व्यक्त भाषा कहलाती है। व्यक्त भाषा के द्वारा मनुष्य केवल एक दूसरे के विचार ही नहीं जान लेते, वरन् उसकी सहायता से उनके नए विचार भी उत्पन्न होते हैं।
भाषा का परिवर्तनशील रूप
भाषा पर स्थान, जलवायु और सभ्यता का बड़ा प्रभाव पड़ता है। बहुत से शब्द जो एक देश के लोग बोल सकते हैं, दूसरे देश के लोग तद्वत् नहीं बोल सकते। जलवायु में हेर-फेर होने से लोगों के उच्चारण में अंतर पड़ जाता है। इसी प्रकार सभ्यता की उन्नति के कारण नए-नए विचारों के लिए नए-नए शब्द बनाने पड़ते हैं; जिससे भाषा का शब्दकोश बढ़ता जाता है। इसके साथ ही बहुत सी जातियाँ अवनत होती जाती हैं और उच्च भावों के अभाव में उनके वाचक शब्द लुप्त होते जाते हैं।
भाषा के अन्य रूप
प्रायः एक देश के अन्दर भाषा का वर्गीकरण निम्न तरह से किया जा सकता है:
1. मातृ भाषा
2. राष्ट्रभाषा
3. राजभाषा
मातृ भाषा
बालक जिस परिवार में जन्म लेता है, उस परिवार से उसने जो भाषा सीखी वह उसकी मातृ भाषा कहलाती है।
राष्ट्रभाषा
देश के अधिकत्तर निवासी जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है। इसी प्रकार अमेरिका की अंग्रेजी तथा जापान की जापानी आदि।
राजभाषा
वास्तव में राजभाषा का शाब्दिक अर्थ ही होता है राजकाज की भाषा। अतः वह भाषा जो देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयोग की जाती है “राजभाषा” कहलाती है। राजभाषा किसी देश या राज्य की मुख्य आधिकारिक भाषा होती है जो समस्त राजकीय तथा प्रशासनिक कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है।
लिपि
‘लिपि ‘ या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
दूसरे शब्दों में, बोलते समय हमारे मुख से ध्वनियाँ निकलती हैं। इन ध्वनियों को लिखने के लिए प्रयोग किए जाने वाले चिन्हों को लिपि कहते हैं।
लिपि का अर्थ है: किसी भाषा की लेखन शैली अथवा ढंग। दूसरे शब्दों में- एक भाषा को लिखने के लिए जिन चिन्हों का उपयोग किया जाता है उसे लिपि कहते हैं।
उदाहरण: जैसे हिंदी भाषा को लिखने के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है वहीं अंग्रेजी को लिखने के लिए रोमन लिपि का प्रयोग किया जाता है।
लिपि के अन्य उदाहरण: गुरुमुखी, रोमन लिपि, गुजराती, उड़िया, तमिल, तेलगू, मलयालम, इत्यादि।
लिपि का आविष्कार
माना जाता है कि ३१०० ईसा पूर्व में सुमेर (दक्षिण मेसोपोटामिया की एक प्राचीन सभ्यता थी) में लिखित भाषा का पहली बार आविष्कार हुआ था।
प्राचीन लिपियाँ: विश्व में ज्ञात प्राचीन सभ्यताओं में अलग-अलग लिपियाँ देखने को मिली हैं:
जैसे सबसे पहले चित्र लिपि का आविष्कार हुआ। इसके अतिरिक्त अन्य लिपियों में सूत्रलिपि, प्रतीकात्मक लिपि, भावमूलक लिपि, भाव-ध्वनिमूलक लिपि, ध्वनिमूलक लिपि आदि।
चित्र-लिपि
चित्र-लिपि ही लेखन के इतिहास की पहली सीढ़ी है। इस प्रकार के पुराने चित्र दक्षिणी फ्रांस, स्पेन, क्रीट, मेसोपोटामिया, यूनान, इटली, पुर्तगाल, साइबेरिया-उजबेकिस्तान, सीरिया, मिस्र, ग्रेटब्रिटेन, केलिर्फोनिया, ब्राजील, तथा ऑस्ट्रेलिया आदि अनेकानेक देशों में मिले हैं।
ध्वनिमूलक लिपि
ध्वनिमूलक लिपि में चिन्ह किसी वस्तु या भाव को न प्रकट कर, ध्वनि को प्रकट करते हैं, और उनके आधार पर किसी वस्तु या भाव का नाम लिखा जा सकता है। नागरी, अरबी तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं की लिपियां ध्वनि-मूलक ही हैं। ध्वनि-मूलक लिपि के दो भेद हैं:
(i) अक्षरात्मक
अक्षरात्मक लिपि में चिन्ह किसी अक्षर को व्यक्त करता है, वर्ण को नहीं। उदाहरणार्थ नागरी लिपि अक्षरात्मक है। इसके ‘क’ चिन्ह क्+अ (दो वर्ण) मिले हैं, पर इसके विरुद्ध रोमन लिपि वर्णात्मक है। अरबी, फारसी, बंगला, गुजराती, उड़िया तथा तमिल-तेलगू आदि लिपियां अक्षरात्मक ही हैं।
(ii) वर्णात्मक
लिपि के विकास-क्रम में चित्र लिपि प्रथम अवस्था की लिपि है और वर्णात्मक ध्वनि-मूलक लिपि अन्तिम अवस्था की। संसार की प्रमुख लिपियों के दो प्रधान वर्ग – संसार की लिपियां प्रमुख रूप से दो वर्गों में रखी जा सकती है:
(i) जिसमें अक्षर या वर्ण नहीं हैं, जैसे क्यूनीफार्म तथा चीनी आदि।
(ii) जिनमें अक्षर या वर्ण हैं, जैसे रोमन तथा नागरी आदि।
देवनागरी लिपि की उत्पति
‘देवनागरी’ नाम की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। इससे सम्बंधित तर्क निम्न प्रकार से हैं:
देवताओं की प्रतिमाओं के बनने के पूर्व उनकी उपासना सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोणादि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे। वे यंत्र ‘देवनागर’ कहलाते थे, और उनके मध्य लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न वर्ण माने जाने लगे। इसी से उनका नाम ‘देवनागरी’ हुआ।
भारत की भाषाएँ एवं उनकी लिपियाँ
भारत के अनेक राज्यों व क्षेत्रों में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं तथा उनकी अपनी लिपियाँ भी हैं:
राज्य | भाषा | लिपि |
---|---|---|
केरल | मलयालम | मलयालम |
असम | असमिया | असमी |
पंजाब | पंजाबी | गुरुमुखी |
कश्मीर | कश्मीरी | कश्मीरी |
कर्नाटक | कन्नड़ | कन्नड़ |
महाराष्ट्र | मराठी | देवनागरी |
ओड़िसा | उड़िया | उड़िया |
बंगाल | बांग्ला | बंगाली |
गुजरात | गुजराती | देवनागरी |
आंध्र प्रदेश | तेलगू | तेलगू |
विदेशों की भाषाएँ एवं उनकी लिपियाँ
वैसे तो दुनिया में अनेक देश हैं तथा उनकी अनेक प्रकार की भाषाएँ हैं यहाँ कुछ प्रमुख देशों की भाषाएँ एवं उनकी लिपियों का उल्लेख किया गया है।
देश | भाषा | लिपि |
---|---|---|
ईरान | फारसी | सिरिलिक |
ब्रिटेन | अंग्रेजी | रोमन |
जापान | जापानी | जापानी |
फ्रांस | फ्रांसीसी | रोमन |
स्पेन | स्पेनिश | लैटिन |
अरब देश | अरबी | अरबी |
अमेरिका | अंग्रेजी | रोमन |
चीन | चीनी | चीनी |
जर्मनी | जर्मन | रोमन |
बोली भाषा
भाषा का वह स्वरूप जो एक छोटे क्षेत्र में बोलने के लिए उपयोग किया जाता है उसे बोली कहा जाता है। बोली भाषा का क्षेत्रीय रूप है। जैसे: ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, गढ़वाली, हरियाणवी आदि।
व्याकरण
व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा हमे किसी भाषा का शुद्ध बोलना, लिखना एवं समझना आता है। भाषा की संरचना के ये नियम सीमित होते हैं और भाषा की अभिव्यक्तियाँ असीमित। एक-एक नियम असंख्य अभिव्यक्तियों को नियंत्रित करता है। भाषा के इन नियमों को एक साथ जिस शास्त्र के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है उस शास्त्र को व्याकरण कहते हैं।
व्याकरण के संबंध में यह बात स्मरण रखने योग्य है कि भाषा को नियमबद्ध करने के लिए व्याकरण नहीं बनाया जाता, वरन् भाषा पहले बोली जाती है, और उसके आधार पर व्याकरण की उत्पत्ति होती है। व्याकरण और छन्दशास्त्र निर्माण करने के बरसों पहले से भाषा बोली जाती है और कविता रची जाती है।
व्याकरण के विभाग
व्याकरण के विभाग व्याकरण भाषासंबंधी शास्त्र है, और भाषा का मुख्य अंग वाक्य है। वाक्य शब्दों से बनता है, और शब्द प्रायः मूल ध्वनियों से। लिखी हुई भाषा में एक मूल ध्वनि के लिए प्रायः एक चिह्न रहता है जिसे वर्ण कहते हैं। वर्ण, शब्द और वाक्य के विचार से व्याकरण के मुख्य तीन विभाग होते हैं:
(1) वर्णविचार
(2) शब्दसाधन
(3) वाक्यविन्यास
वर्णविचार
वर्णविचार व्याकरण का वह विभाग है जिसमें वर्गों के आकार, उच्चारण और उनके मेल से शब्द बनाने के नियम दिए जाते हैं।
शब्दसाधन
शब्दसाधन व्याकरण के उस विधान को कहते हैं जिसमें शब्दों के भेद, रूपान्तर और व्युत्पत्ति का वर्णन रहता है।
वाक्यविन्यास
वाक्यविन्यास व्याकरण के उस विभाग का नाम है जिसमें वाक्यों के अवयवों का परस्पर संबंध बताया जाता है और शब्दों से वाक्य बनाने के नियम दिए जाते हैं।
हिंदी की उत्पत्ति
हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। १००० ई॰ के आसपास इसकी स्वतन्त्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक सन्दर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं।
हिंदी शब्द की उत्पति
शुरुआत में ईरानी लोग सिंधु नदी के तटवर्ती भूभाग को हिंद कहते थे लेकिन धीरे-धीरे पूरे भारत के लिए वे हिंद का इस्तेमाल करने लगे। आगे चलकर ‘हिंद’ में ‘ईक’ प्रत्यय लगने से ‘हिंदीक’ शब्द बना और बाद में ‘हिंदीक’ में से ‘क’ के गायब होने से हिंदी बना। हिंदी का मतलब था, भारत का निवासी या वस्तु और भारत की भाषा।
हिंदी का आविष्कार
अन्य भारतीय आर्य भाषाओं की तरह, हिंदी वैदिक संस्कृत के प्रारंभिक रूप का प्रत्यक्ष वंशज है। यह 7 वीं शताब्दी ईस्वी में उभरा, इसका आविष्कार किसी ने नहीं किया।
वर्तमान हिंदी
हिंदी प्राकृत भाषाएँ ईसवी सन के कोई आठ-नौ सौ वर्ष तक और अपभ्रंश भाषाएँ ग्यारहवें शतक तक प्रचलित थीं। हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में हिंदी की प्राचीन कविता के उदाहरण पाए जाते हैं। जिस भाषा में मूल ‘पृथ्वीराजरासो’ लिखा गया है। ‘षटभाषा’ का मेल है। इस ‘काव्य’ में हिंदी का पुराना रूप पाया जाता है। इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी वर्तमान हिंदी का विकास ईसवी सन् की बारहवीं सदी से हुआ है।
विद्वान् लोग हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को नीचे लिखे चार भागों में बाँटते हैं
आदि हिंदी
यह उस हिंदी का नमूना है जो अपभ्रंश से पृथक् होकर साहित्यकार्य के लिए बन रही थी। यह भाषा दो कालों में बाँटी जा सकती है:
(1) वीरकाल (1200-1400) और
(2) भक्तिकाल (1400-1600)।
वीरकाल में अनेक वीर रस से परिपूर्ण काव्यों की रचना हुई जिनमें मुख्यतः इस प्रकार हैं:
काव्य रचना | रचयिता |
---|---|
बीसलदेव रासो | नरपति नाल्ह |
पृथ्वीराज रासो | चंदबरदाई |
परमाल रासो | जगनिक |
हम्मीर रासो | शारंगधर |
विजयपाल रासो | नल्ह्सिंह भाट |
खुमाण रासो | दलपति विजय |
जयचंद प्रकाश | भट केदार |
इनके अतिरिक्त इस काल दूसरे प्रकार की रचनाएं भी हुई जिनमें प्रमुख रचनाकार विद्यापति, खुसरो, मुल्ला दाउद आदि हैं।
भक्तिकाल (1400-1600)
प्राचीन हिंदी का समय बताने वाली दूसरी रचना भक्तों के साहित्य में पाई जाती है, जिसका समय अनुमान से 1400-1600 है। इस काल के जिन-जिन कवियों के ग्रंथ आजकल लोगों में प्रचलित हैं उनमें ज्यादातर वैष्णव संत थे और उन्हीं के मार्ग-प्रदर्शन से पुरानी हिंदी के उस रूप में, जिसे ब्रजभाषा कहते हैं; कविता रची गई। वैष्णव सिद्धांत के प्रचार का आरंभ रामानुज से माना जाता है जो दक्षिण के रहने वाले थे और अनुमान से बारहवीं सदी में हुए हैं। उत्तर भारत में यह धर्म रामानंद स्वामी ने फैलाया, जो इस संप्रदाय के प्रचारक थे। इनका समय सन् 1400 ईसवी के लगभग माना जाता है। रामानंद के शिष्यों में कबीर सबसे प्रसिद्द थे जिनका समय 1512 ईसवी के लगभग है। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे हैं जिनमें ‘साखी’, शब्द आदि प्रमुख हैं। लेकिन कबीर की रचना की भाषा मिली-जुली थी। इसी समय मीराबाई, नानक, मलिक मुहम्मद जायसी आदि। इनके अतिरिक्त वैष्णव आचार्यों में बल्लभाचार्य, सूरदास आदि प्रसिद्द कवि हुए हैं।
मध्य हिंदी
यह हिंदी कविता के सत्ययुग का नमूना है जो अनुमान से सन् 1600 से लेकर 1800 ई. तक रहा। इस काल में केवल कविता और भाषा ही की उन्नति नहीं हुई वरन् साहित्य विषय के भी अनेक उत्तम और उपयोगी ग्रंथ लिखे गए। मध्य हिंदी के कवियों में सबसे प्रसिद्ध गुसाईं तुलसीदास जी हुए; जिनका समय सन् 1573 से 1624 ई. तक है। इस काल के दूसरे प्रसिद्ध कवि केशवदास, बिहारीलाल, भूषण, मतिराम और नाभादास, प्रियादास हैं। सूरति मिश्र ने इसी समय में ब्रजभाषा के गद्य में ‘बैताल पचीसी’ नामक एक ग्रंथ लिखा। यही कवि गद्य के प्रथम लेखक हैं।
आधुनिक हिंदी
यह काल सन् 1800 से 1900 ईसवी तक है। इसमें हिंदी गद्य की उत्पत्ति और उन्नति हुई। अँगरेजी राज्य की स्थापना और छापे के प्रचार से इस शताब्दी में गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें बनीं और छपी। साहित्य के सिवा इतिहास, भूगोल, व्याकरण, पदार्थविज्ञान और धर्म पर इस काल में कई पुस्तकें लिखी गईं।
इस काल के और प्रसिद्ध लेखक राजा लक्ष्मणसिंह, पं. अम्बिकादत्त व्यास, राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं। इन सब में भारतेंदु जी का आसन ऊँचा है। उन्होंने केवल 35 वर्ष की आयु में कई विषयों की अनेक पुस्तकें लिखकर हिंदी का उपकार किया और भावी लेखकों को अपनी मातृभाषा की उन्नति का मार्ग बताया। भारतेंदु के पश्चात् वर्तमान काल में सबसे प्रसिद्ध लेखक और कवि पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. श्रीधर पाठक, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय और बाबू मैथिलीशरण हैं, जिन्होंने उच्च कोटि के अनेक ग्रंथ लिखकर हिंदी भाषा और साहित्य का गौरव बढ़ाया है। आधुनिक काल के अन्य प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद, पं. सुमित्रानंदन पंत, बाबू जयशंकर प्रसाद, पं. सूर्यकांत त्रिपाठी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, उपेंद्रनाथ अश्क, यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी, जैनेंद्रकुमार दिनकर, बच्चन, श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल और रामचंद्र वर्मा हैं। कवयित्रियों में श्रीमती महादेवी वर्मा और सुभद्राकुमारी चौहान प्रसिद्ध हैं।
आधुनिक हिंदी के जनक
भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक कहे जाते हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उन्होंने अलग-अलग विधाओं में लेखन किया। महज पैंतीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई लेकिन उनके समय को हिंदी का भारतेंदु युग कहा जाता है।