एनसीईआरटी समाधान कक्षा 9 हिंदी संचयन अध्याय 4 मेरा छोटा से निजी पुस्तकालय
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 9 हिंदी संचयन अध्याय 4 मेरा छोटा से निजी पुस्तकालय के प्रश्न उत्तर अभ्यास में दिए गए सभी प्रश्नों के हल शैक्षणिक सत्र 2024-25 के लिए यहाँ दिए गए हैं। इस पाठ के आरंभ में लेखक ने बताया कि किस प्रकार जुलाई 1989 में एक दिन का समय अधिक संघर्षमय था। तीन ज़बरदस्त हार्ट-अटैक के बाद मौत के करीब पहुंचे लेखक को डॉक्टर बोर्जेस ने नौ सौ वॉल्ट्स के झटके देकर पुनः जीवन में लौटाया। यह क्रियावली उसके हृदय के साठ प्रतिशत हिस्से को नष्ट कर दिया और केवल चालीस प्रतिशत बचा। ऑपरेशन की आवश्यकता थी, लेकिन सर्जन अभी निर्णय में अनिश्चित थे।
कक्षा 9 हिंदी संचयन अध्याय 4 मेरा छोटा से निजी पुस्तकालय
एनसीईआरटी समाधान कक्षा 9 हिंदी संचयन अध्याय 4 मेरा छोटा से निजी पुस्तकालय
लेखक और किताबे
अस्पताल से वापस घर आकर, लेखक अपने किताबों से भरे कमरे में विश्राम कर रहा था। उसे चलना, बोलना और पढ़ना पर प्रतिबंध था। वह समय-समय पर खिड़की के बाहर के पेड़ के पत्ते और अपनी किताबों की अलमारियों को देखता रहता। उसे अहसास हुआ कि जैसे उसका जीवन उसके शरीर से जुड़ा नहीं है, वैसे ही वह अपनी किताबों से जुड़ा हुआ है, जो पिछले चालीस-पचास वर्षों में जमा हो गई थीं।
यह कथा बताती है एक व्यक्ति के प्रेम की किताबों से। जब वह बच्चा था, उसके पिता आर्य समाज रानीमंडी के प्रधान थे और उसकी माँ ने स्त्री-शिक्षा के लिए आदर्श कन्या पाठशाला की स्थापना की थी। हालांकि परिवार आर्थिक कठिनाइयों से गुजर रहा था, फिर भी उनके घर में विभिन्न पत्रिकाएँ आती थीं। इन पत्रिकाओं में से कुछ वह बचपन से ही पढ़ता था और उनमें परियों, राजकुमारों और दानवों की कहानियाँ होती थीं।
बचपन से ही पुस्तकों से लेखक का लगाव
वह बच्चे के रूप में ही पुस्तकों में डूब जाता था। सत्यार्थ प्रकाश और स्वामी दयानंद की जीवनी जैसी पुस्तकें उसे खास प्रभावित करती थीं। दयानंद के जीवन में उसने अद्भुत साहस और अदम्य आत्मशक्ति देखी, जो उसे प्रेरित करती थी। जब भी वह इन गहरी किताबों से थक जाता, वह अपनी प्रिय बाल पत्रिकाओं बालसखा और चमचम को पुनः पढ़ लेता।
माँ चिंतित थीं कि उसका बेटा स्कूल की पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा था और वह किसी दिन साधु बनकर घर छोड़ देगा। पिता इस पर चिंतित नहीं थे और चाहते थे कि बेटा घर पर ही पढ़ाई करे ताकि वह बुरी संगत से दूर रहे। जब बेटा कक्षा दो तक की पढ़ाई घर पर पूरी कर ली, तो उसे स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। उसने अच्छी मेहनत की और अच्छे अंक प्राप्त किए।
अंग्रेजी विषय में श्रेष्ठता
बेटे को स्कूल से अंग्रेजी में श्रेष्ठता के लिए दो किताबें मिलीं जिनसे उसे नई जानकारियाँ मिलीं और उसकी रूचि और भी बढ़ गई। पिता ने उसे अलमारी में एक जगह दी जहाँ वह अपनी किताबें रख सकता था। बेटा समय समय पर अपनी शिक्षा में उत्कृष्टता प्राप्त की और उसकी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया।
इस अंश में लेखक का व्यक्तिगत अनुभव बताया गया है, जो किताबों के प्रति उनके प्यार और इच्छा को चित्रित करता है। इलाहाबाद का वर्णन किया गया है जहाँ विभिन्न प्रकार की लाइब्रेरियों की बारीकी से चर्चा की गई है। लेखक उस समय के अपने दरिद्र जीवन की चर्चा करते हैं जब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था और वे अपनी पढ़ाई के लिए पुस्तकें खरीदने में असमर्थ थे।
लेखक अपने शौक की किताबों को पढ़ने के लिए ‘हरि भवन’ लाइब्रेरी में अधिक समय बिताते थे। वहां वे विश्व साहित्य के अनेक अनूदित उपन्यास पढ़ते थे और उन्हें इससे बहुत सुख मिलता था। लेखक ने अपने आर्थिक संकट का वर्णन किया है, जब उन्हें अपनी पाठ्यपुस्तकें भी खरीदने में कठिनाई होती थी। इसके बावजूद, उनकी प्रेमभावना किताबों के प्रति कभी कम नहीं हुई।
अपनी पहली पुस्तक की यादें
लेखक अपने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक को खरीदने की याद साझा कर रहा है। जब वह इंटरमीडिएट पास करता है, वह पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर नई पाठ्यपुस्तकें खरीदने जाता है और उसके पास दो रुपये शेष रह जाते हैं। वह सिनेमाघर के पास जाता है जहाँ ‘देवदास’ चल रहा है और वह उस फिल्म के गाने को गुनगुनाता है। उसकी माँ, जो सिनेमा की विरोधी होती है, उसे फिल्म देखने के लिए कहती है। जब वह फिल्म देखने जाता है, उसको एक किताब की दुकान में ‘देवदास’ नामक पुस्तक दिखाई देती है, जिसकी कीमत सिर्फ एक रुपया होती है। वह वह पुस्तक खरीद लेता है। जब उसने यह बताया कि उसने पिक्चर नहीं देखी और पुस्तक खरीदी, तो माँ की आँखों में आंसू आ गए।
आज जब वह अपने पुस्तक संकलन पर नजर डालता है, जिसमें अनेक प्रसिद्ध लेखकों और कलाकारों की कृतियां हैं, तो उसे अपनी पहली पुस्तक की खरीदारी की याद शिद्दत से आती है। मराठी के वरिष्ठ कवि विदा करंदीकर ने उसे बताया कि ये सैकड़ों महापुरुष, जो पुस्तक-रूप में उसके चारों ओर हैं, वही हैं जिन्होंने उसे पुनर्जीवन दिया। लेखक इन सभी महापुरुषों का मन-ही-मन प्रणाम करता है।